Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

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Page 130
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्द्रहवीं सदी ( १५४) अज्ञात (१८३) श्रृंगार माई गा० ४९ श्रादि - प्रीत तणी दुइ लोहड़ी, सुदरि सहजइ जाणि । चिति चोखउ अविचल हीयउ, वालहा ऊपरि आणि ॥१॥ अन्त-रे पहिला रस ताहरा, केता कहुं विलास । मन गमती गोरी मिलइ, तउ सवि पूरइ आस । ४५ । भले तरणे अक्षर करी, दूहा बोल्या चंग ! सिणगारह कूपली, ए नवयोवन रंग । ४६ इति शृंगार माई समाप्ता ( पत्र १ संतरहवीं शती लि० अभय जैन ग्रंथालय ) (१५५) अज्ञात (१८४) वैराग्य चउपइ गा० १७ [ ११३ प्रादि- चउदह पूख माहि जे सार, पहिलं मन समरउ नवकार भणिसु धर्मात्रम्म विचार, जेणिहि जीव तरह संसार ॥ १ अन्त: - तप तपई भावन भावति, सुद्ध चित्ति ज दान दीयंति । For Private and Personal Use Only क्रोध मान माया निरजणी, इसिई करमि देव लोकि संचरइ ॥। १७ प्रति० अभय०

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