Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

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Page 149
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२] मरू-गूर्जर जैन कवि तिहि परि नव निधि संपजइ, खेमराज मुनिवर पभणंति ॥२५ श्री फलवर्षी पाश्र्वनाथ रास समाप्तमिति । प्रति- गुटकाकार नं० ६ पत्र २१६ से २१, पंक्ति १३ अक्षर १७ लेखनकान-संवत् १६४६ प्रति वृहत् ज्ञान भंडार वि. दे. जैन. गु. का. भाग. ३ पृ. ५०० (श्रावकाचार चौ० सं० १५०६) (१७८) अज्ञात (२०९) प्रभव जंबूस्वामि वेलि सं. १५४६ पत्र ५ आदि करजोडी प्रभव भणइ, जंबुकुमर अवधारि। विषयसोल्य भोगवि भला, रगिई पंच प्रकारि ।। सरब भोग विरमणी रसिरातु, महियाजनम म हारि। जंबुत भूलीइ । कणय निवाणु कोडि हेला न मूकीइ, नव यौवन अट्ट नारि बंधन चूकीइ । माय बाप केरी आण भगतिइं सारीइ । प्रावि सुख पगित ठेलि, किमइ न वारीइ । यौवन दुलभ संसारि, हईइ मालोची। मोरु वयण अवधारि, पछइ म सोची। पांचली॥१ अन्त-प्र० कणय निवाणू कोडि त्यजी, नव परणित अट्टनारि । प्रभवासि जंबूकुमर, जूतु संजम भारि। क्षिपीय करम नई लीला पांमी, मगति रमणि वरनारि ॥२९ For Private and Personal Use Only

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