Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

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Page 152
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात सोलहवीं सदी [ १३५ अन्त-इम जीव दया प्रति पालउ, साचउ समकित रयण उजालउ । समकित विण काज न सीझा, सालिग कहइ सुघउ कीजइ ॥२८ इति बलीभद्र वेलि समाप्ता लिखता। सं० १६६६ लि. गुटका प्रभय० - (१८२) अज्ञात (२१३) हेमविमल सूरि विवाहलउ पद्य ७१ आदि-प्रथम पत्र प्राप्त अन्त-इम आणी अंगि ऊमा...........'वीवाहलु । नरनारी जे नितु गावइ, तेह मंदिरि नवनिधि प्रावइ ॥७० श्री समति साध..................."सुगुरु रतन्न । श्री हेमविमल सूरीस, गुरु प्रतपु कोड़ि वरीस ॥७१ जस भेरी चिहं दिसि........ ...... श्री गुरु राज धीवाहलउ संपूर्ण । प्रति-पत्रांक ३ ( गा० ५५ से ७१) पंक्ति-१४। अक्षर-४४। । लेखनकाल-१७वीं. लि. प्रति० अभय. विशेष-किनारे कटे हुए ३ पत्र हेम विमल सूरि संबंधी प्राप्त हुए हैं। पर तीनों तीन विभिन्न रचनामों के ज्ञात होते है अक दूसरे का संबंध व गाथा का अंक नहीं मिलता। मध्य पत्र में गाथा २६ से ५६ तक है। वह रचना भी बड़ी होनी चाहिए। प्रथम पत्र में गाथा का अंक ५+५+ ३, इस प्रकार त्रुटित अंक हैं उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है For Private and Personal Use Only

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