Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta,
Publisher: Abhay Jain Granthalay
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मरू-गूर्जर जैन कवि (१८७) भावसागर सूरि शि० (विधिपक्षीय) (२१९) चैत्य परिपाटी गा० ४४
पत्र २ सं० १५६२
आदि-प्रणमसिउ पहिलुपास जिणंद, चैत्य प्रवाडि करिस आदि ।
श्री चीत्रोड़ तणी जिनयात्र, करीय करूनिय निरमल गात्र १ पाटण थकी मझ इछा इसी, भाव भगति वि हईडि बसि ।।
कतियापुर देहरा छि पंच, प्रणमाता नवि करीइ खंच ॥२ अन्त-वछित ए दानद समरथ तीरथमाल विवह पुरे।।
एम करीए निरमल जुत, सवत पनर बासट्टि वरे ॥४३ तेह हृइ पदिपदि सयल संपद, विपद सवि दूरि टलि । कल्याणमाला करि केली, वलिय मन. वछित फलि ।।४४
इति चैत्य परिपाटी
वि० दे० ज० गु० क० भा० ३ पृ० ७७२
(१८८) विनय अज्ञात (उएसगच्छीय सिद्धिसूरि
प्राज्ञानुवर्ती मेघरत्न ?) (२२०) महावीर २७ भव स्तवन गा०६१
स० १५६५ मेड़ता
आदि-सरसति सरस वचन दिउ माय, जिम मुझ हीयड़इ हरषित थाइ ।
पभणिसि गुणहु जिणिवर तणा, महावीर भव पूर्या घणा ॥१
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