Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 157
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० ] मरू-गूर्जर जैन कवि (१८७) भावसागर सूरि शि० (विधिपक्षीय) (२१९) चैत्य परिपाटी गा० ४४ पत्र २ सं० १५६२ आदि-प्रणमसिउ पहिलुपास जिणंद, चैत्य प्रवाडि करिस आदि । श्री चीत्रोड़ तणी जिनयात्र, करीय करूनिय निरमल गात्र १ पाटण थकी मझ इछा इसी, भाव भगति वि हईडि बसि ।। कतियापुर देहरा छि पंच, प्रणमाता नवि करीइ खंच ॥२ अन्त-वछित ए दानद समरथ तीरथमाल विवह पुरे।। एम करीए निरमल जुत, सवत पनर बासट्टि वरे ॥४३ तेह हृइ पदिपदि सयल संपद, विपद सवि दूरि टलि । कल्याणमाला करि केली, वलिय मन. वछित फलि ।।४४ इति चैत्य परिपाटी वि० दे० ज० गु० क० भा० ३ पृ० ७७२ (१८८) विनय अज्ञात (उएसगच्छीय सिद्धिसूरि प्राज्ञानुवर्ती मेघरत्न ?) (२२०) महावीर २७ भव स्तवन गा०६१ स० १५६५ मेड़ता आदि-सरसति सरस वचन दिउ माय, जिम मुझ हीयड़इ हरषित थाइ । पभणिसि गुणहु जिणिवर तणा, महावीर भव पूर्या घणा ॥१ For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170