Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta,
Publisher: Abhay Jain Granthalay
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कोल्हि
सोलहवीं सदी
[ १२९
प्रति - पत्र २ से १० । पंक्ति-१० । अक्षर-४१
प्रति०-अभय जैन ग्रन्यालय वि० दे० ज. गु. क, भाग पृ. ३ ५२७ (सं० १५३८ चोवीशी की प्रति का लेखन)
(१७५) कोल्हि (२०५) कंकसेन राजा चौपाई
सं० १५४१
आदि-पहिलउ पणमउ शारद माइ, भूल्यो आखर प्राण उठाई।
काशमीर मुख मंडण ढणी, करउ पसाउ देह बुद्धि घणी ॥१ गणवइ पूजउ थारा पाय, देहि बुद्ध स्वामी सूपसाइ । तुह पसाइ हुय पडउ करउ, मगरमच्छ चरी उधरउ ॥२ तंबावती वसइ प्रति भली, कुल छत्तीस रहसी इति मिली।
दिसइ दुरग धवलहल घणां, मढ़ देवल कि नाहीं मणां । अन्त-जाण्या उराहा तणो विचार, वन माह नाठउ छोड़ि धर बार ।
पंचा कहयाउ जो नवि करइ, स कंकसेन ज्यू भूलउ फिरइ ।।३२९ पन्द्रहसइ इकतालइ(१५४१)श्रावण मासि, बुद्धि पूछो कवियण
पासि ।। पुष्प नम्रत्र प्राछाइयाती खरउ, उधम एह आज ही करउ ॥३३० कवियण सानिधी चउपइ, भोलोउइ भावि कोल्हि इम कही। मुदि पांचमी अपर मंगलवार, हुवउ चरित सब विघ्न
निवार ॥३३१
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