Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta,
Publisher: Abhay Jain Granthalay
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अज्ञात
सोलहवीं सदी
( १६५) कल्याणचंद्र
( १९४) कीर्तिरत्न सूरि वीवाहलउ गा० ५४
( कीर्तिरत्न सूरि शि० ) सं० १५२५ लग० प्रादि-भक्ति भर भरियउ हरिस सिरि वरियउ, पणमिय संति करु संतिभाह ।
सनाह ॥ १
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सारदा सामिणि हंसला गामिणी, झाणिहि निय हिय करि नाण लोयण तणउ अम्ह दातार गुरु, अनय गुणवन्त
[ ११९
सिरिमउड़ मणि ।
तेण सिरि कित्तिरयण सूरीसरे, हिव कहिसु हउ चरिय घरि भत्ति मणि ॥ २
अन्त - एह विवाहलउ भणइ मावि, तसु मणो वंछित देइ इंदो । भतु सिरि कित्तिरयण सूरि पाय. सीसतसु कहइ कल्लाण चंदो स्थान - जैसलमेर भंडार ।
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॥५४ प्रतिलिपि - श्रभय जैन ग्रंथालय ।
( १९५) श्री कीतिरत्नसूरि चउपइ गा० १८
आदि - सरसति सरस वयण दे देवि, जिम गुरु गुण बोलिउ संखेवि । पीजद प्रमिय रसायण बिंदु, तहवि सरीरिह हुइ गुण वृंद ॥ १ प्रन्त-- श्री कीर्तिरतन सूरि चटप, प्रहऊंठी जे निश्चल थई
भगद्द गुणइ तिहि काज सरंति, 'कल्याणचंद्र' गणि भगति भरणंति ॥ १८५

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