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मरू-गूर्जर जैन कवि (११४) ख० जिनभद्र सूरि शि० (१३३) खरतर गुरु गुण छप्पय पद्य ३२+१६=४८ .
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स. १४७५ लग.
आदि – सो गुरु सगुरु छविह जीव, अप्पण सम जाणइ।
सोगुरु सुगरु जु सच्च रूव, सिद्धत वखाणइ। सो गुरु सगुरु जु सील धम्म निम्मल परिपालइ । सो गरु सुगुरु जु दव्व संग, विसम सम भणि टालइ । सो वेव सुगुरु जो मूल गुण, उत्तर गुण जइणा करइ।
गुणवंत सुगरू भो भवियणह, पर तारइ अप्पण तरइ ॥१ अन्त-दुर्घट घटना घटित कुटिल, कपटागम सूत्कट ।
वावाटोस्कट करटि करट, पाटन सिहोद्भट । नट विट लंपट मक्त निकट, विन तारि भटस्फट । हाटक सुथट किरीट कोटि, धृष्ट क्रम नख तर जट । विस्टप वांछित काम रट, विर्घाडत दुष्ट घट प्रकट। जिनभद्र सूरि गुरूवर किकट, सितपट शिरो मुकुट ।।३७ ...
. (प्र. ऐ. ज. का. संग्रह पृ. २४ से ३६
टि. ये छप्पय समय-समय पर फुटकर रूप में रचे जाते रहे होगें । इसकी प्रतियां हमारे संग्रह में हैं जिनमें से प्रथम में ३२ पद्य हैं द्वितीय में १६ अधिक है।
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