Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

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Page 127
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. ] मरू-गूर्जर जैन कषि इति श्री कोतिरत्नसूरि वराणां फागु समाप्तः ॥छ। शुभंभवतु श्री संघस्य ॥छ।। लिखितं जयध्वज . गणिना ।। (प्र. ऐ० 2. का० सं० पृ. ४.१) (१५०) कवियण (१७९) मातृका फाग गा० ३१ भादि-प्रहे जिण चमणा सिर नमिय, पामिय बहि-गुरु मागु । माईय बावन्न आक्षर, पाखरीय करो पातु ॥२ . भलेय बलीय सुणि धामिय, स्वामिय का विचारु । मीडय हीउडलय, धरिसु, तरिसिब सयल संसारु ॥२ भागलि दो दो लोहड़ीय, जीभड़ी वोनि आलु । उकारस्य मागमि आगमि, कहीयस्य साक॥३ . मम्हण विलेपन पूजि न तू जिन जिणहर व । मन मन तजि नवकारज, सारज भवि चार एह ॥४ सिर सम्वसमई विषई बिषय सुख पादुल मेरू समाण । धम्म न बूझई पामर, का मरमे न अजाण ।५ अन्त-रत्न प्रमूलिक सोलह लोलह तम विमासि । लहसि मुगति तूउतउ पण राखिसि पासि ।२७ बनवलीबूउ बोलीय, जोईय जिण पर सेव । ससिकर जोड़ीव बीनव, सेव करवं व For Private and Personal Use Only

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