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मरू-गूर्जर जैन कवि प्रथम लील कसमीर करती, ललिय लोल कल्लोल वहंती ।
अठदल कमल मज्झि उप्पत्ती, सकल सबल अम्हि तालह दिन्ति ।। २ ।। अन्त: संखेपिणी जिण दिन्नं दाणु, वीर जिणंदह केवल नाणु ।
चंदण पढम पवत्तिणिय, परमेसरह निव्वाणह जति । वत्तीमासय वित्त तहिं. अखलिउ सुहु सिद्धिहि माणति ॥ ३४ ।। एहु रासु पुण वृद्धिहि जंति, भाविहि भगतिहिं जिणहरि दिति । पढइ पढावइ जे सुण इ, तह सवि दुक्खइं खइयह जंत्ति । जालउर न उरि आसुगु भणइ, जम्मि जम्मि तूस उ सरसत्ति ॥३६।। ॥ इति श्री चन्दनबाला रासः ॥
(सं० १४३७ की प्रति से ) प्र० राजस्थान भारती ३/३-४
वि. इस कवि का जीवदया रास सं० १२५७ सहजिगपुर में रचित है जिसमें कवि ने अपना विशेष परिचय दिया है (प्र. भारतीय विद्या भा-३) दे० ज० गु० क० भा० ३ पृष्ठ० ३६५
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(१०) जिनपतिसूरि शिष्य
(१०) बालावबोध प्रकरण गा० ११६ आदि - पणमवि जिणवइ देउ गुरु, अनु सरसह सुमरेवि
धम्मुवएसु पयंपियइ, सुणि अवहाणु करेवि ।।१॥ मध्य - दाणु न दिज्जइ भोग न भुजहि, मुय पियय मपिय माइ सुसिजहि देव गुरु वि तिण सम वि गणिज्जहिं, जुत्ताजुत्तहिं नवि
याणिज्जहि ॥६॥
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