Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 8
________________ ३८० जैनहितैषी [भाग १३ पर वशीकरण-पुष्प रख दे, तो वह राजा पागल- इन श्लोकोंसे प्रकट है कि जैनी राजाओंको के समान होकर उसके वशमें हो जायगा । इस अन्य मतियोंके देवताका प्रसाद आदि लेनेसे लिए राजा. लोगोंको अन्यमतवालोंकी शेषा रोकने के लिए भरत महाराजने केवल धर्म उप आशीर्वाद, शान्तिवचन, शान्तमंत्र और पुण्याह- देश देना ही काफी नहीं समझा है, किन्तु उन्हें वाचन आदि सबका त्याग कर देना चाहिए। बड़े बड़े भय दिखलानेकी भी जरूरत मालूम यदि वह त्याग नहीं करेगा तो नीच कुलवाला हुई है, जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस हो जायगा । जैनी राजा अरहंत देवके चरणोंकी समय अन्यमतियोंका बहुत ही ज्यादा प्रभाव सेवा करनेवाले होते हैं, इस वास्ते उनको अर- और प्रचार था; परन्तु जिस समयका हंत देवकी ही शेषा आदि ग्रहण करनी चाहिए, यह वर्णन है वह कर्मभूमिका प्रारम्भिक काल जिससे उनके पापोंका नाश हो। जो लोग जैनी था जब कि श्रीआदिनाथ भगवान्ने सब लोगोंको नहीं हैं, उनको कोई अधिकार नहीं है कि वे खेती व्यापार आदि छह कर्म सिखाये थे और क्षत्रियोंको शेषा देवें । इस वास्ते राजा लोगोंको नगर ग्राम आदि बनाकर उन ही लोगोंमेंसे योग्य अपने कुलकी रक्षा करनेके लिए सदा कोशिश पुरुषोंको भिन्न भिन्न देशोंके राजा नियत किये करते रहना चाहिए । यदि वे ऐसा न करेंगे तो थे, और फिर केवलज्ञान प्राप्त करके वे अपनी अन्यमती लोग झूठे पुराणोंका उपदेश सुनाकर दिव्यध्वनिके द्वारा जगत्भरमें सत्य धर्मका उनको ठग लेंगे ॥" मूल श्लोक ये हैं:- प्रकाश कर रहे थे और उनके बेटे भरत महाराज तैस्तु सर्वप्रयत्नेन कार्य स्वान्वयरक्षणं । छः खंड पृथिवीको जीतकर ३२ हजार मुकुटबद्ध तत्पीलनं कथं कार्यमिति चेत्तदनूच्यते ॥ १७ ॥ राजाओं पर राज्य कर रहे थे । इस कारण भरत स्वयं महान्वयत्वेन महिम्नि क्षत्रिया: स्थिताः। महाराजका उपर्युक्त उपदेश उस समयके अनुकूल धर्मास्थया न शेषादिग्राह्यं तैः परलिंगिनां ॥ १८॥ किसी तर तच्छषादिग्रह दोष कश्चन्माहात्म्यविच्युतिः। सेनाचार्यके समय से यह कथन अक्षर अक्षर मिल अपाया बहवश्वास्मिन्नतस्तत्परिवर्जनं ॥ १९ ॥ जाता है, जब कि सारे ही भारतमें ब्राह्मणोंका माहात्म्यप्रच्युतिस्तावत्कृत्वान्यऽस्य शिरोनतिं । जोर हो रहा था और जब कि सारे भारतमें ततः शेषाद्युपादाने स्यानिकृष्टत्वमात्मनः ॥ २० ॥ प्रद्विषन्परपाखंडी विषपुष्पाणि निक्षिपेत् । अमोघवर्ष जैसे एक ही दो जैनी राजा दिखाई यद्यस्य मूर्ध्नि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः ॥ २१ ॥ देते थे और बाकी सब ही राजा ब्राह्मणोंके वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपेद्यदि मोहने । अनुयायी थे । ऐसे समयमें अमोघवर्ष आदि ततोऽयं मूढवद्वृत्तिरुपेयादन्यवश्यतां ॥ २२ ॥ राजाओंका भी इन ब्राह्मणोंके हाथसे उनके तच्छेषाशीर्वचः शांतिवचनाद्यन्यलिंगिनां । देवताका प्रसाद लेना, उनको प्रणाम करना, पार्थिवैः परिहर्तव्यं भवेन्यक्कुलतान्यथा ॥ २३ ॥ उनका आशीर्वाद आदि स्वीकार करना और जैनास्तु पार्थिवास्तेषामहत्पादोपसेविनां। देशभरमें इन ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा होनेके कारण तच्छेषानुमतिया॑य्या ततः पापक्षयो भवेत् ॥ २४ ॥ इस प्रथाका त्याग कठिनतर होना बहुत ही ततः स्थितमिदं जैनान्मतादन्यमतस्थिताः । क्षत्रियाणन शेषादिप्रदानेरधिकता इति ॥ २९॥ सम्भव मालूम होता है । इससे यही सिद्ध कुलानुपालने यत्नमतः कुर्वेतु पार्थिवः। होता है कि यह सब उपदेश भरत महाराजने अन्यथारन्यैः प्रतार्येरन्पुराणाभासदेशनात् ॥३०॥ अपने समयके राजाओंको नहीं दिया; किन्तु --पर्व ४२। जिनसेन महाराजने ही यह उपदेश अमोघ ह जन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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