Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 7
________________ अङ्क ९-१०] ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। त इमे कालपर्यंते विक्रियां प्राप्य दुर्दशः। महाराजके स्थानमें जैन राजाओंको उपदेश धर्मदहो भविष्यंति पापोपहतचेतनाः ॥ ५० ॥ देनेवाले श्री जिनसेनाचार्य मान लिये जायँ तो सत्त्वोपघातनिरता मधुमासाशनप्रियाः। सब बात ठीक बैठ जाती है। प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यंत्यधार्मिकाः॥५१॥ ___भरत महाराजने जो उपदेश अपने दरबारमें अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः । आये हुए राजाओंको दिया था, उसके शेष चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यंत्यमी बत ॥ ५२ ॥ पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । भागको पढ़नेसे मालूम होता है कि, उस समय वय॑द्यगे प्रवस्य॑ति सन्मार्गपरिपंथिनः ॥ ५३ ॥ मिथ्याती ब्राह्मणोंका प्रभाव इससे भी अधिक द्विजातिसर्जनं तस्मानाद्य यद्यपि दोषकृत् । था, जितना कि ऊपरके कथनसे मालूम हुआ स्याद्दोषबीजमायत्यां कुपाखंडप्रवर्तनात् ।। ५४ ॥ है । यहाँ तक कि जैनी राजा भी उन पर श्रद्धा इति कालांतरे दोषबीजमप्येतदंजसा। रखकर उनके दिये हुए ‘शेषा' अर्थात् देवता : नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनतिक्रमात् ॥ ५५॥ पर चढ़ाई हुई फूलमाला आदिकको या पूजनसे -पर्व ४१। बची हुई सामग्रीको और उनके देवताओंके श्रीभगवान्ने भरत महाराजके स्वमोंका फल स्नानके पानीको ग्रहण करते थे और उन वर्णन करते हुए भी कहा था कि, आदर सत्का- ब्राह्मणोंके आगे सिर झुकाते थे। उस समय रसे जिसकी पूजा की गई है और जो नैवेद्य खा यह प्रथा ऐसी प्रबल हो रही थी कि इस प्रथाका रहा है ऐसे कुत्तेके देखनेका फल यह है कि छुड़ाना भरत महाराजको भी मुश्किल जान के (पंचम कालमें ) अव्रती द्विज भी गुणी पात्रोंके पड़ता था । देखिए भरत महाराजने राजाओंको समान आदर सत्कार पावेंगे । यथाः- उपदेश देते समय क्या कहा हैशुनोऽर्चितस्य सत्कारैश्चरभोजनदर्शनात् । _ "क्षत्रियोंको बड़ी कोशिशके साथ अपने गुणवत्पात्रसत्कारमाप्स्यत्यवतिनो द्विजाः ॥ १४ ॥ वंशकी रक्षा करनी चाहिए और वह इस -पर्व ४१। तरह पर हो सकती है कि, उनको अन्य भरत महाराजने राजाओंको उपदेश देते हुए मतवालोंके धर्ममें श्रद्धा रखकर उनके दिये जिन वेदपाठी ब्राह्मणोंकी निन्दा की है उनका हुए शेषा और स्नानोदक आदि कभी ग्रहण मिलान पंचम कालके उन ब्राह्मणोंके साथ नहीं करने चाहिए । यदि कोई कहे कि . करनेसे-जिनका वर्णन श्रीभगवानकी उक्त भविष्य- उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण करने में क्या दोष द्वाणी और स्वमफलमें हुआ है-दोनोंका है, तो उसका उत्तर यह है कि इसमें अपने स्वरूप एक ही हो जाता है; अर्थात् यही मालूम महत्वका नाश होता है और अनेक अनिष्ट होता है कि भगवान्ने, ब्राह्मणाका जो स्वरूप होते हैं, इस वास्ते उनका त्याग करना ही पंचमकालमें हो जाना वर्णन किया है मानों उचित है । दूसरोंके सामने सिर झुकानेसे वे ही ब्राह्मण भरत महाराजका उपदेश होते अपने महत्त्वका नाश होता है, इसलिए समय चौथे कालके प्रारम्भमें ही मौजूद थे; उनकी शेषा आदि लेनेसे अपनी निकृष्टता ही या ऐसा मालूम होता है, मानों भरत महाराज ही होती है। कदाचित् कोई पाखंडी किसी प्रकारका पुचम कालमें अवतार लेकर इन पंचम कालके द्वेष करके राजाके सिरपर 'विष-पुष्प ' रख दे, तो ब्राह्मणों पर कर लगानका उपदेश पंचम कालके इसतरह भी राजाका नाश हो सकता है, या जैनी राजाओंको दे रहे हैं । अर्थात्, यदि भरत कोई राजाको मोहित करनेके लिए राजाके सिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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