Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ ૨૦ परम शत्रु इन द्वेषी ब्राह्मणोंकी मान्यताका होना आचार्य महाराजको किसी तरह भी सहन नहीं हो सकता था, अतः उन्होंने जैनी राजाका सहारा पाकर इन ब्राह्मणोंको अक्षरम्लेच्छ और साधारण प्रजासे भी निकृष्ट सिद्ध करके उनकी मान्यताको तोड़नेके वास्ते अन्य प्रजाके समान उन पर भी कर लग जानेकी कोशिश की, और स्वयं अमोघवर्ष राजाको समझाने के स्थान में भरत महाराजके द्वारा उस • समय के राजाओं को ऐसा उपदेश देनेकी कथा इस कारण आदिपुराण में वर्णन कर दी कि आगे "होनेवाले जैन राजाओं पर भी इस कथाका असर पड़ता रहे । जैनहितैषी - पर्व ४९ में कथन किया गया है कि एक दिन भरत महाराजने कुछ स्वम देखे; जिनको उन्होंने अनिष्टकारी समझकर यह विचार किया कि इनका फल पंचम कालमें ही होगा; क्योंकि इस समय तो श्री आदिनाथ भगवान् स्वयं विद्यमान हैं । उनके होते हुए ऐसा उपद्रव कैसे सम्भव हो सकता है । इस सतयुग के बीत जानेपर जब पंचम का पाप अधिक होगा, तब ही इन स्वप्नोंका फल होगा, चौथे कालके अन्तमें ही ये अनिष्ट सूचक स्वप्न अपना फल दिखावेंगे । परन्तु भरत महाराजने विचार किया कि, इन स्वमोंका फल श्रीभगवानसे भी पूछ लेना चाहिए, इस कारण वे समवसरण में गये और वहाँ उन्होंने श्रीमहाराज से प्रार्थना की कि, मैंने जो द्विजोंकी सृष्टि की है सो यह कार्य अच्छा हुआ या बुरा, और मैंने जो स्वम देखे हैं उनका फल क्या है ? इस पर श्रीभगवान् ने जो उत्तर दिया है, उसका भावार्थ यह है कि - " तूने जो इन साधुसमान गृहस्थ द्विजोंका पूजन किया है, सो जबतक चौथा काल रहेगा तबतक तो ये अपने योग्य आचरणको पालन करते रहेंगे; परन्तु जब कलियुगसमीप आ जावेगा, तब ये लोग Jain Education International [ भाग १३ अर्पना जातिके अभिमान के कारण अपने सदाचार से भ्रष्ट होकर इस श्रेष्ठ मोक्षमार्गके विरोधी बन जावेंगे और अपनी जातिके अभिमानसे अपनेको सब लोगोंसे बड़ा समझकर धनकी इच्छासे मिथ्या शास्त्रोंके द्वारा सत्र लोगों को मोहित करते रहेंगे, आदर सत्कार के कारण अभिमान बढ़ जाने से ये लोग मिथ्या घमंड से उद्ध होकर अपने आप ही मिथ्या शास्त्रोंको बना बना कर लोगों को ठगा करेंगे, इन लोगोंकी चेतना - शक्ति पापकर्मसे मलिन हो जायगी, अतः ये धर्मके शत्रु हो जायँगे । ये अधर्मी लोग प्राणियोंकी हिंसा करने में तत्पर हो जायँगे, मधुमांसखाने को अच्छा समझेंगे और हिंसारूप धर्मकी घोषणा करेंगे । ये दुष्ट आशयवाले लोग अहिंसारूप धर्ममें दोष दिखाकर हिंसामय धर्मको पुष्ट करेंगे, पापके चिह्नस्वरूप जनेऊ को धारण करनेवाले और जीवोंके मारनेमें तत्पर ये धूर्त लोग आगामी कालमें इस श्रेष्ठ मार्गके विरोधी हो जायेंगे। इस कारण ब्राह्मणवर्णकी स्थापना यद्यपि इस कालमें कुछ दोष उत्पन्न करनेवाली नहीं है, तो भी आगामी कालमें खोटे पाखंडों की प्रवृत्ति करनेसे यह दोषकी बीजरूप है । परन्तु आगामी कालके लिए दोषकी बीजरूप होने पर भी अब इसे मिटाना नहीं चाहिए । क्योंकि ऐसा करने से धर्मरूप सृष्टिका उल्लंघन हो जायगा । यथा: " साधु वत्स कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनं । किंतु दोषानुषंगोत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यतां ॥ ४५ ॥ आयुष्मन् भवता सृष्टाय एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थितिः ॥ ४६ ॥ ततः कलियुगेऽभ्यर्णे जातिवादावलेपतः । तेऽमी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यते सन्मार्गप्रत्यनीकतां ॥ ४७ ॥ पुरा दुरागमैर्लोकं मोहयंति धनाशया ॥ ४८ ॥ सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धताः । जनान् प्रतारयिष्यंति स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः ॥ ४९ ॥ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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