Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 4
________________ जैनहितैषी [भाग १३ सामान्य प्रजाके ही समान मानना चाहिए, वयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकसम्मताः । अथवा सामान्य प्रजासे भी कुछ निकृष्ट मानना धान्यभागमतो राज्ञे न दद्म इति चेन्मतं ॥ १८७ ।। चाहिए। ये लोग माननेके योग्य नहीं हैं, किन्तु वे वैशिष्टयं किं कृतं शेषवर्णोभ्यो भवतामिह । ही द्विज (ब्राह्मण) मानने योग्य हैं जो अरहंत- न जातिमात्राद्वैशिष्ठयं जातिभेदाप्रतीतितः॥१८८॥ देवके सेवक हैं। यदि ये अक्षरम्लेच्छ यह कहने गुणतोऽपि न वैशिष्ठयमस्ति वो नामधारकाः । लगें कि लोगोंको संसारसे पाप करनेवाले हम ही वतिनो ब्राह्मणा जैना ये त एव गुणाधिकाः॥१८९॥ हैं, हम ही देव ब्राह्मण हैं और सब लोग हम ही- निव्रता निर्नमस्कारा निघृणाः पशुघातिनः । को मानते हैं, इस वास्ते हम राजाको अपने म्लेछाचारपरा यूयं न स्थाने धार्मिका द्विजाः ॥ १९० । फसलका कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे, तो उनसे तस्मादतकुरु म्लछा इव तेऽमी महीभुजां । प्रजासामान्यधान्यांशदानाद्यैरविशेषिताः ॥ १९१ ॥ पूछना चाहिए कि अन्य वर्गोंसे तुममें क्या विशे किमत्र बहुनोक्तेन जैनान्मुत्क्वा द्विजोत्तमान् । पता है और क्यों है ? जातिमात्रसे तो कोई नान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजासामान्यजीविकाः॥१९२॥ बड़प्पन हो नहीं सकता, रहे गुण, सो उनका तुममें बडप्पन है नहीं; क्यों कि तुम नामके ही ब्राह्मण उपर्युक्त श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि, जिन जैनी हो । गुणोंमें तो वे ही बड़े हैं, जो व्रतोंको धारण राजाओंको यह उपदेश दिया गया है उनके ही करनेवाले जैन ब्राह्मण हैं । तुम लोग व्रत-रहित, राज्यमें उस समय ये वेदपाठी ब्राह्मण रहते थे, नमस्कार करनेके अयोग्य, निर्लज्ज, पशुऑकी जो वेद पढ़नेके द्वारा ही अन्य लोगोंसे अपनी हिंसा करनेवाले और म्लेच्छोंके आचरणमें जीविका प्राप्त करते थे, और ये लोग ऐसे नहीं तत्पर हो, इस लिए तुम किसी तरह भी धार्मिक थे, जिन्होंने उसी समय कोई नवीन पंथ खड़ा द्विज ( ब्राह्मण ) नहीं हो । राजाओंको उचित करके अपनेको पुजवाना शुरू कर दिया हो, किन्तु है कि, वेइन अक्षर म्लेच्छोंसे साधारण प्रजाके ही ये लोग अनेक पीढ़ियोंसे माने जा रहे थे । तबही समान अनाजका भाग लेकर इनको सबके समान तो इनको अपनी जातिका आभिमान था; और मानें । ज्यादा कहनेकी जरूरत नहीं है । राजा- उनका यह अभिमान उस समय ऐसा प्रभावओंको उत्तम जैन द्विजों (ब्राह्मणों) के सिवाय शाली हो रहा था कि, जैनराजा भी उनसे कर और किसीको भी पूज्य नहीं मानना चाहिए । " नहीं लेते थे। तबही तो भरत महाराजको यह ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः। जरूरत हुई कि वे जैनीराजाओंको भड़कावें तेऽपि कर्षकसामान्यं कर्तव्याः करदा नृपैः ॥१८१॥ कि इनसे क्यों कर नहीं लिया जाता है तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविनः। और समझा कि लोग पूज्य नहीं हैं, किन्तु अधर्माक्षरसम्पाठेलीकव्यामोहकारिणः ॥ १८२॥ अन्य प्रजाके समान हैं, इस कारण अन्यप्रजाके यतोऽक्षरकृतं गर्वमविद्याबलतस्तके। समान इनसे भी कर लेना चाहिए । इतना ही घहत्यतोऽक्षरम्लेच्छाः पापसूत्रोपजीविनः ॥ १८३ ॥ म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च । नहीं, किन्तु इन वेदपाठी ब्राह्मणांका प्रभाव तो बलात्परस्वहरणं निभूतत्वमिति स्मृतं ॥ १८४ ॥ उस समय इतना अधिक था कि, राजाओंको सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः । उपदेश देते समय भरतमहाराजको भी यह भय तादृशं बहु मन्यते जातिवादावलेपतः ॥ १८५॥ उत्पन्न हुआ और इस अपने भयको उन राजा. प्रजासामान्यतैवेषां मता वा स्यानिकृष्टता । ओंके प्रति प्रकट भी कर देना पड़ा कि जब इन ततो नमान्यताऽस्त्येषां द्विजामान्याःस्युराहताः॥१८६॥ ब्राह्मणोंसे अन्य प्रजाके समान कर माँगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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