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सहयोग को विस्मृत नहीं कर सकता जिन्होंने अलग-अलग रूपों में इसका डिक्टेशन लेने, प्रेस कापी तैयार करने, शब्द अनुक्रमणिका बनाने एवं प्रूफ संशोधन आदि में मेरा सहयोग किया।
यद्यपि प्रस्तुत कृति के प्रकाशन की प्रक्रिया पार्श्वनाथ विद्यापीठ में प्रारम्भ हो गयी थी, किन्तु आदरणीय श्री देवेन्द्रराज मेहता, सचिव, प्राकृत भारती अकादमी तथा महोपाध्याय पं० विनयसागर, निदेशक, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के आग्रह और स्नेह के वशीभूत होकर मैंने इसे पार्थनाथ विद्यापीठ एवं प्राकृत भारती दोनों संस्थाओं से सम्मिलित रूप से प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ और विशेष रूप से उसके मन्त्री, भाई भूपेन्द्रनाथ जी जैन का तो मेरे ऊपर ऋण है ही, क्योंकि उनके द्वारा उपलब्ध साधन सुविधाओं के आधार पर ही इस कृति का प्रणयन हो पाया है। प्राकृत भारती अकादमी का विशेषरूप से उसके सचिव देवेन्द्रराजजी मेहता और निदेशक, महोपाध्याय विनयसागरजी का भी मैं उतना ही आभारी हूँ जिन्होने पूर्व में मेरी छः पुस्तकों का प्रकाशन किया है। चूंकि दोनों ही संस्थाएँ सम्प्रदाय निरपेक्ष होकर जैन विद्या के विकास में कार्यरत हैं, अतः उनके द्वारा संयुक्त रूप से इस कृति का प्रकाशन हो, इसमें मुझे किसी प्रकार का कोई संकोच भी नहीं था। इससे दोनों संस्थाओं का अर्थभार भी कम हुआ है। इस कृति में प्रस्तुत निष्कर्ष और विचार मेरे अपने हैं और प्रकाशन संस्थाएँ उसके लिए उत्तरदायी नहीं हैं, यद्यपि इन्होंने मेरी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति को जो मान दिया है उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। मैं उन सभी विद्वानों के सुझाओं, मार्गदर्शन एवं समीक्षाओं का आभारी रहूँगा जो प्रस्तुत कृति का अध्ययन कर अपने मन्तव्यों से मुझे अवगत करायेंगे। हो सकता है कि उनके द्वारा प्रस्तुत विचारबिन्दुओं के आधार पर इसका अगला संस्करण और अधिक सशक्त और सुन्दर बन सके । प्रस्तुत कृति के प्रकाशन में मेरे कारण जो अनपेक्षित विलम्ब हुआ है उसके लिए मैं प्रकाशक और पाठक दोनों से क्षमा प्रार्थी हूँ।
१ अप्रैल, १९९६ महावीर जयन्ती
सागरमल जैन निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ
वाराणसी
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