Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 9
________________ [ vii : झकझोरेगी और उनमें समवाय लिए एक नयी दिशा प्रदान करेगी। इस कति में मेरे जो निष्कर्ष हैं वे यथा सम्भव साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर मात्र ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर निकाले गये हैं। इस लेखन में श्वेताम्बर परम्परा के आगमिक और अन्य साहित्य की मेरी जानकारी मेरे लिए सहयोगी हुई है, फिर भी मैंने दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों की कहीं उपेक्षा नहीं की है, वरन् उनका भी आद्योपान्त अध्ययन कर एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यद्यपि मैं अपनी भाषा में संयत रहा हूँ फिर भी कहीं-कहीं आग्रही दृष्टिकोणों पर चोट करने के लिए मेरी लेखनी में कठोरता आयी है, किन्तु मेरा अनुरोध है कि इसे किसी प्रकार की दुर्भावना का प्रतीक न मानकर साम्प्रदायिक व्यामोहों के प्रति मेरी अन्तर्व्यथा की अभिव्यक्ति ही माना जाय । फिर भी यदि मेरी लेखनी से किसी को कोई चोट पहुँचती हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ के दो अध्याय, जो यापनीय सम्प्रदाय के उद्भव, विकास एवं उसके गच्छों, कुलों एवं अन्वयों से सम्बन्धित हैं, वस्तुतः अत्यन्त संक्षिप्त ही हैं, क्योंकि वे यापनीय सम्प्रदाय पर एक संक्षिप्त ग्रन्थ लिखने के उद्देश्य से ही लिखे गये थे, किन्तु यापनीय साहित्य वाला इसका तीसरा अध्याय अति विस्तृत हो गया है और असन्तुलित सा लगता है। इसका मूलभूत कारण यह है कि एक ओर जहाँ इस अध्याय में मुझे श्रीमती कुसुम पटोरिया द्वारा यापनीय माने गये ग्रन्थों के संदर्भ में उनके मन्तव्यों की समीक्षा करनी पड़ी है, जिसमें पक्ष एवं विपक्ष दोनों के मन्तव्यों पर विचार आवश्यक था वहीं दूसरी ओर मेरे अध्ययन के क्रम में जिन अनेक नवीन यापनीय ग्रन्थों की जानकारी मुझे मिली उन्हें भी स्वाभाविक रूप से इस अध्याय में समाहित करना पड़ा है। इससे आकार असंतुलित हो गया है। इसी अध्याय में मुझे तत्त्वार्थसूत्र किस परम्परा का ग्रन्थ है इसे लेकर लगभग १६० पृष्ठों का लेख सविस्तार लिखना पड़ा क्योंकि उसे अपनी परम्परा का सिद्ध करने हेतु श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा के विद्वानों के अपने-अपने तर्क हैं और मुझे उनकी समीक्षा करनी पड़ी है। इसके विस्तार का एक कारण यह भी रहा है कि इस अध्याय का लेखन और प्रकाशन दोनों साथ-साथ चलते रहे और लगभग ४ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में यह अध्याय पूर्ण हुआ और मैं उस दौरान उपलब्ध नवीन-नवीन सामग्री के संकलन का मोह संवरण नहीं कर सका। कृति का अन्तिम अध्याय मान्यताओं के सन्दर्भ में है जिसमें विस्तार से बचने के लिए यापनीय संघ की केवल उन्हीं मान्यताओं की चर्चा की है, जो उसकी अपनी विशिष्ट हैं और जिन्हें लेकर उसका श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं से विरोध है। शेष मान्यताओं, जो तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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