Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 7
________________ लेखकीय प्रस्तुत कृति के प्रणयन की कथा अत्यन्त रोचक है । यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, भगवान् महावीर की परम्परा का सही रूप में प्रतिनिधित्व करने वाला तथा तमान श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं के मध्य योजक कड़ी के रूप में विकसित यह सम्प्रदाय मेरी अध्ययन-रुचि का विषय तो था ही और इसीलिए इस पर प्रो० उपाध्याय एवं पं० नाथूरामजी प्रेमी के निबन्धों के आधार पर लगभग ६०७० पृष्ठों की एक लघु पुस्तिका लिखने का निर्णय लेकर यह कार्य प्रारम्भ भी किया था। तब मैंने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि यह कृति इतना वृहद आकार ले लेगी। मात्र सोचा यही था कि 'श्रमण' के विभिन्न अंकों में धारावाहिक लेख के रूप में इसे प्रकाशित कर बाद में इस लघु कृति को स्वतंत्र रूप से मुद्रित करवा दिया जायेगा। इसी आशय के साथ 'श्रमण' के दो अंकों में इस कृति की प्रारम्भिक सामग्री कम्पोजिंग हेतु प्रेस को दी गयी। जब उसका प्रूफ आया तो मैंने देखा कि उस प्रूफ के पीछे की तरफ यापनीय सम्प्रदाय और उसका साहित्य नामक किसी अन्य कृति का प्रूफ भी था, जो उसी प्रेस में मुद्रित हो रही थी जहाँ हमने अपनी कृति मुद्रणार्थ दी थी। जब मैंने सम्बन्धित प्रेस से सम्पर्क स्थापित किया तो ज्ञात हुआ कि श्रीमती कुसुम पटोरिया की यह कृति आधे से अधिक छप चुकी है और जल्द ही पूर्ण होने वाली है। अतः मैंने अपनी कृति का कम्पोजिंग कार्य उन दो फर्मों के बाद रोक दिया जो श्रमण ( जुलाई, १९८८ ) के साथ कृति के प्रथम अध्याय के रूप में मुद्रित हो चुके थे। श्रीमती पटोरिया की उस कृति का जब मैंने अध्ययन किया तो मुझे यह लगा कि इस सन्दर्भ में पर्याप्त संशोधन करके अभी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। क्योंकि श्रीमती पटोरिया की कृति से दो तथ्य स्पष्ट रूप से उभर कर मेरे सामने आये थे, एक तो यह कि उसमें श्वेताम्बर आगम साहित्य के आधार पर तथ्यों के आकलन के बिना ही निष्कर्ष निकाल लिये गये थे। दूसरे यह कि अधिकांश निष्कर्ष पूर्व के दिगम्बर विद्वानों - विशेषरूप से पं० नाथूरामजी प्रेमी, प्रो० ए० एन० उपाध्ये, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार आदि के लेखों पर आधारित थे। उनमें कोई नवीनता नहीं थी। यद्यपि अनेक संदर्भो में मैं पं० नाथूराम जी प्रेमी और श्रीमती कुसुम पटोरिया के निष्कर्षों से सहमत हुआ हूँ किन्तु अधिकांशतः यह कृति पूर्व विद्वानों की मान्यताओं की समीक्षा के रूप में ही है। मैंने उनकी समीक्षा एवं नवीन तथ्यों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 550