Book Title: Jain Dharma ka Yapniya Sampraday
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 10
________________ [ viii ] सम्प्रदायों में समान हैं, की चर्चा मात्र पिष्टपेषण होगा, यह समझकर उसकी उपेक्षा कर दी गयी है। इस कृति के अन्त में एक और अध्याय जोड़ने की मेरी इच्छा थी जिसमें यापनीय आचार्यों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवेचन किया जाना था, किन्तु ग्रन्थ के विस्तार-भय से तथा मेरी प्रशासनिक व्यस्तताओं से प्रकाशनकार्य में आगे और अधिक विलम्ब न हो जाय, इसे ध्यान में रखकर लेखनी को यहीं विराम देना पड़ रहा है। सम्भव हुआ तो भविष्य में यापनीय आचार्यों का जैन धर्म को अवदान नामक एक स्वतन्त्र पुस्तिका प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। अन्त में मैं उन सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग मुझे इस कृति के प्रणयन में मिला है। सर्वप्रथम तो मैं श्रीमती कुसुम पटोरिया का आभारी हूँ जिनकी कृति मेरे लेखन, चिन्तन और समीक्षा-मन्तव्यों के प्रस्तुतीकरण का उपजीव्य बनी है। यदि उनकी कृति मेरे समक्ष नहीं होती तो सम्भवतः यह ग्रन्थ मात्र १०० पृष्ठों में ही सिमट कर रह गया होता। इसके अध्यायों के वर्गीकरण एवं विषय के प्रस्तुतीकरण में मैंने उनकी कृति यापनीय सम्प्रदाय और उसका साहित्य का पूरा लाभ उठाया है फिर भी मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि उनके और मेरे निष्कर्ष अनेक बिन्दुओं पर बिल्कुल भिन्न हैं । प्रस्तुत कृति उनकी कृति का अनुकरण मात्र न होकर वस्तुतः उनके मन्तव्यों की व्यापक समीक्षा ही है, जो अनेकानेक नवीन तथ्यों का उद्घाटन करती है, फिर भी उनका इतना ऋण तो मुझे अवश्य स्वीकार करना होगा कि उनकी कृति के परिणामस्वरूप ही मेरी प्रस्तुत कृति अस्तित्व में आई है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत कृति के प्रणयन में मेरे आधार बने हैं - प्रो० ए० एन० उपाध्ये और पं० नाथूरामजी प्रेमी के लेख । इन सभी के मन्तव्यों को मैंने यथा अवसर उद्धृत और उल्लेखित भी किया है। विचार-समीक्षा की दृष्टि से विशेष रूप से तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के निर्धारण में मैंने पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार और डॉ० दरबारी लालजी कोठिया के लेखन को भी आधार बनाया है और उन्हें कहीं-कहीं सम्पूर्ण रूप से उद्धृत भी किया है। अतः मैं इन सभी का आभारी हूँ। इस सम्बन्ध में मैं पं० दलसुख भाई मालवणिया और प्रो० मधुसूदन ढाकी का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे दिशा प्रदान की। इसके साथ ही मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के उन सभी सहयोगी साथियों को भी धन्यवाद देना चाहूँगा जिनके सहयोग के अभाव में इस कृति के प्रकाशन में और कितना विलम्ब होता, यह कहा नहीं जा सकता। इस सन्दर्भ में मैं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह, डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, डॉ शिवप्रसाद, डॉ० इन्द्रेशचन्द्र सिंह, डॉ० रज्जनकुमार एवं शोध अध्येता डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी तथा श्री असीमकुमार मिश्र के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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