________________
अभिप्राय विद्यावारिधि जैन दर्शन दिवाकर पं० चम्पतरायजी जैन बैरिस्टर ने 'जैनधर्म की उदारता' को आद्योपान्त पढ़ कर जो अपना लिखित अभिप्राय दिया है वह इस प्रकार है-- _ 'जैनधर्म की उदारता' नामक यह पस्तक बड़ी ही सुन्दर है । इसमें जैनधर्म के असली स्वरूप को विद्वान् लेखक ने बड़ी खूबी से दर्शाया है । उदाहरण सब शास्त्रीय हैं । और उनमें ऐतराज की कोई गुंजाइश नहीं है। वर्ण व्यवस्था वास्तव में पोलिटोकल उन्नति और कयाम (स्थिति) के लिये थी, न कि श्रादमियों को भिन्न जातियों में विभाजित करने के लिये । जैनधर्म सब प्राणियों के लिये है। किसी को अख्तयार नहीं है कि दूसरे के धर्म साधन में बाधक हो सके।
जिस अर्थ में गोत्रकर्म भाव राजवार्तिक में दिखाया गया है उस भाव में लेखक का कथन समाविष्ट हो जाता है । लेकिन गोत्रकर्म शायद अपने असली स्वभाव में उस आकर्षण शक्ति के ऊपर निर्भर है जिसके द्वारा प्राणी उच्च या नीच योनि में खिंचकर पहुँच जाता है । ऐसी दशा में गोत्रकर्म का संबंध पैदायश के समय से ही ठीक जुड़ता है।
अन्त में मैं इस बात को कहना चाहता हूँ कि ऐसी पुस्तकों से जैनधर्म का महत्व प्रगट होता है। इनकी कद्र होनी चाहिये।
C. R. Jain
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com