Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 19
________________ जैनधर्म की उदारता उच्च और नीचों में समभाव । इसी प्रकार जैनाचार्यों ने पद पद पर स्पष्ट उपदेश दिया है कि प्रत्येक जिज्ञासुको धर्म मार्ग बतलाओ, उसे दुष्कर्म छोड़ने का उपदेश दो और यदि वह सच्चे रास्ते पर आ जावे तो उसके साथ बन्धु सम व्यवहार करो । सच बात तो यह है कि ऊँचों को ऊँच नहीं बनाया जाता, वह तो स्वयं ऊँच हैं ही । मगर जो भ्रष्ट हैं, पद च्युन हैं, पतित हैं, उन्हें जो उच्च पद पर स्थित करदे वही उदार एवं सच्चा धर्म है । यह खूबी इस पतित पावन जैनधर्म में है । इस संबंध में जैनाचार्यों ने कई स्थानों पर स्पष्ट विवेचन किया है । पंचाध्यायीकार ने स्थितिकरण का विवेचन करते हुये लिखा है कि सुस्थितीकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात् । भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ॥८०७॥ अर्थात्-निज पद से भ्रष्ट हुये लोगों को अनुग्रह पूर्वक उसी पद में पुनः स्थित कर देना ही स्थितिकरण अंग है। इस से यह सिद्ध है कि चाहे जिस प्रकार से भ्रष्ट या पतित हुये व्यक्तिको पुनः शुद्ध कर लेना चाहिये और उसे फिर से अपने उच्च पद पर स्थित कर देना चाहिये । यही धर्म का वास्तविक अंग है। निर्विचिकित्सा अंग का वणन करते हुये भी इसी प्रकार उदारतापूर्ण कथन किया गया है । यथा-- दुर्दैवाद्दुःखिते पुंसि तीव्रासाताघृणास्पदे । यन्नादयापरं चेतः स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥५८३॥ अर्थात्-जो पुरुष दुर्दैव के कारण दुखी है और तीब्र असाता के कारण घणा का स्थान बन गया है उसके प्रति अदयापर्ण चित्त का न होना ही निर्विचिकित्सा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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