Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 58
________________ जैनधर्म में शूद्रों के अधिकार वादिपरिणीतानां गर्भेष्त्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् । तथा जातीयकानां दीक्षाईत्वे प्रतिषेधाभावात् ।" अर्थात्-कोई यों कह सकता है कि म्लेच्छ भमिज मनुष्य मुनि कैसे हो सकते हैं ? यह शंका ठीक नहीं है, कारण कि दिग्विजय के समय चक्रवर्ती के साथ आर्य खण्ड में आये हुये म्लेच्छ राजाओं को संयम की प्राप्ति में कोई विरोध नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि वे म्लेच्छ भमि से आर्यखण्ड में आकर चक्रवर्ती आदि से संबंधित होकर मुनि वन सकते हैं । दूसरी बात यह है कि चक्रवर्ती के द्वारा विवाही गई म्लेच्छ कन्या से उत्पन्न हुई संतान माता की अपेक्षा से म्लेच्छ कही जा सकती है, और उसके मुनि होने में किसी भी प्रकार से कोई निषेध नहीं हो सकता । इसी बात को सिद्धान्तराज श्रीजयधवल ग्रंथ में भी इस प्रकार से लिखा है कि "जइ एवं कुदो तत्स्थ संजमग्गहणसंभवोत्तिणा संकणिज्जं । दिसाविजयपयहचकवहिखंधावारेण सहमज्झिमखण्डमागयाणं मिलेच्छएयाणं तत्य चकवहि आदिहिं सह जादवेवाहियसंबंधाणं संजमपडिवत्तीए विरोहाभाचादो । अहवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादि परिणीतानांगर्भेषत्पन्ना , मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीहविवक्षिताः ततो न किंचिद्विमतिषिद्धं । तयाजातीयकानां दीक्षाहत्वप्रतिषेधाभावादिति ।" -जयधवल, पाराकी प्रति पृ०८२७-२८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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