Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ ५२ जैनधर्म की उदारता तद्विया ग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवां । तत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ॥१०२॥ श्रादिपुराण पर्व १६ । अर्थात्-पुत्रियो ! यदि तुम्हारा यह शरीर अवस्था और अनुपम शील विद्या से विभूषित किया जाये तो तुम दोनों का जन्म सफल हो सकता है । संसार में विद्यावार पुरुष विद्वानों के द्वारा मान्य होता है ! अगर नारी पढ़ी लिखी विद्यावती हो तो वह स्त्रियों में प्रधान गिनो जाती है । इस लिये पत्रियो ! तुम भी विद्या ग्रहण करने का प्रयत्न करो । तुम दोनों को विद्या ग्रहण करने का यही समय है। ___ इस प्रकार स्त्री शिक्षा के प्रति सद्भाव रखने वाले भगवान आदिनाथ ने विधि पर्वक स्वयं ही पुत्रियों को पढ़ाना प्रारंभ किया। इस संबंध में विशेष वर्णन श्रादिपुराण के इसी प्रकरण से ज्ञात होगा । इससे मालूम होगा कि इस युग के सृष्टा भगवान आदिनाथ स्वामी स्त्री शिक्षाके प्रचारक थे। उन्हें स्त्रियों के उत्थान की चिंता थी और वे स्त्रियों को समानाधिकारिणी मानते थे। मगर खेद है कि उन्हीं के अनुयायी कहे जाने वाले कुछ स्वार्थियों ने स्त्रियों को विद्याध्ययन, पूजा प्रक्षाल आदि का अनधिकारी बताकर स्त्री जाति के प्रति घोर अन्याय किया है । स्त्री जाति के प्रशिक्षित रहने से सारे समाज और देश का जो भारी नकसान हुआ है वह अवर्णनीय है । त्रियों को मूर्ख रख कर स्वार्थी पुरुषों ने उनके साथ पशु तुल्य व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया और मनमाने ग्रंथ बनाकर उनकी भर पेट निन्दा कर डाली। एक स्थान पर नारी निन्दा करते हुये एक विद्वान ने लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76