Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 70
________________ वैवाहिक उदारता ५७ अर्थात् इस शरीर में वर्ण या आकार से कुछ भेद दिखाई नहीं देता है । तथा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों में शुद्रों के द्वारा भी गर्भाधान की प्रव ते देखी जाती है । तब कोई भी व्यक्ति अपने उत्तम या उच्च वर्ण का अभिमान कैसे कर सकता है ? तात्पर्य यह है कि जो वर्तमान में सदाचारी है वह उच्च है और जो दुराचारी है वह नीच है । इस प्रकार जाति और वर्ण की कल्पना को महत्व न देकर जैनाचार्यों ने आचरण पर जोर दिया है। जैनधर्म की इस उदारता को ठोकर मार कर जो लोग अन्तजातीय विवाह का भी निषेध करते हैं उनकी दयनीय बुद्धि पर विचार न करके जैन समाज को अपना क्षेत्र विस्तृत, उदार एवं अनुकूल बनाना चाहिये । / जैन शास्त्रों को, कथा ग्रंथों को या प्रथमानुयोग को उठाकर देखिये, उनमें आपको पद पद पर वैवाहिक उदारता नजर आयगी । पहले स्वयंवर प्रथा चालू थी, उसमें जाति या कुल की परवाह न करके गुण का ही ध्यान रखा जाता था । जो कन्या किसी भी छोटे या बड़े कुल वाले को उसके गुण पर मुग्ध होकर विवाह लेती थी उसे कोई बुरा नहीं कहता था । हरिवंश पुराण में इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि - कन्या वृणीते रुचिरं स्वयंवरगता वरं । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयम्वरे ॥ ११-७२॥ अर्थात -- स्वयंवरगत कन्या अपने पसंद वर को स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या अकुलीन । कारण कि स्वयंवर में कुलीनता कुलीनता का कोई नियम नहीं होता है । अत्र विचार करिये, कि जहां कुलीनं अकुलीन का विचार न करके इतनी वैवाहिक उदारता बताई गई है वहां अन्तर्जातीय विवाह तो कौनसी बड़ी बात है। इसमें तो एक ही जाति, एक ही धर्म, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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