Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 73
________________ जैनधर्म की उदारता "अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः" अाज हमारी समाज में सच्चे निस्वार्थी योजक की कमी है । उसकी पति भी युवकों के हाथ में है । वास्तविक धर्म की उदारता नीचे के ४ पद्यों से ही मालूम हो जावेंगी। धर्म वही जो सब जीवों को भव से पार लगाता हो । कलह द्वेष मात्सर्य भाव को कोसों दूर भगाता हो । जो सब को स्वतन्त्र होने का सच्चा मार्ग बताता हो । जिसका आश्रय लेकर प्राणी सुखसमृद्धि को पाता हो ॥१॥ जहाँ वर्ण से सदाचार पर अधिक दिया जाता हो जोर । . तरजाते हों निमिष मात्र में यमपालादिक अंजन चोर ॥ जहाँ जाति का गर्वन होवे और न हो थोथा अभिमान । वहीधर्म है मनुजमात्र को हो जिसमें अधिकार समान ॥२॥ नर नारी पशु पत्नी का हित जिसमें सोचा जाता हो । दीन हीन पतितों को भी जो प्रेम सहित अपनाता हो । ऐसे व्यापक जैनधर्म से परिचित करदो सब संसार । धर्म अशुद्ध नहीं होता है खुला रहे यदि सबको द्वार ॥३॥ प्रेमभाव जग में फैलादो और सत्य का हो व्यवहार । दुरभिमान को त्याग अहिंसक बनो यही जीवन का सार । जैनधर्म की यह उदारता अब फैलादो देश विदेश । . 'दास' ध्यान देना इस पर यह महावीर का शुभ सन्देश॥४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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