Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ ४८ जैन धर्म की उदारता को भलकर विपरीत मार्ग को भी धर्म समझ रही हो। जैसे सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र तो होता है किन्तु पत्रियों को उसका अधिकारी नहीं माना जाता है । ऐसा क्यों होता है ? क्या पत्र की भांति पुत्री को माता ९ माह पेट में नहीं रखती ? क्या पत्र के समान पत्री के जनने में कष्ट नहीं सहती ? क्या पुत्र की भांति पुत्री के पालन पोषण में तकलीफें नहीं होती ? बतलाइये तो सही कि पत्रियाँ क्यों न पुत्रों के समान सम्पत्ति की अधिकारणी हों। हमारे जैन शास्त्रों ने तो इस संबंध में पूरी उदारता बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि"पुण्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकैः॥"१५४॥ -श्रादिपराण पर्व ३८॥ अर्थात्-पुत्रों की भांति पुत्रियों को भी बराबर भाग बांट कर देना चाहिये। इसी प्रकार जैन कानन के अनुसार स्त्रियों को, विधवाओं को या कन्याओं को पुरुष के समान ही सब प्रकार के अधिकार हैं । इसके लिये विद्यावारिधि जैन दर्शन दिवाकर पं० चंपतरायजी जैन बैरिष्टर कृत 'जैनला' नामक ग्रन्थ देखना चाहिये । जैन शास्त्रों में स्त्री सन्मान के भी अनेक कथन पाये जाते हैं। जब कि मूढ़ जनता त्रियों को पैर की जूती या दासी समझती है तब जैन राजा महाराजा अपनी रानियों का उठकर सन्मान करते थे और अपना अर्धासन बैठने को देते थे । भगवान महावीर स्वामी की माता महारानी प्रियकारिणी जब अपने स्वप्नों का फल पछने महाराजा सिद्धार्थ के पास गई तब महाराजाने अपनी धर्मपत्नो को श्राधा श्रासन दिया और महारानी ने उस पर बैठ कर अपने स्वप्नों का वर्णन किया । यथा"संप्राप्तासिना स्वमान् यथाक्रममुदाहरत् ॥" -उत्तरपुराण। www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76