Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 57
________________ ४४ जैन धर्म की उदारता माना गया हैं, पज्य माना गया है और गणधरादि द्वारा प्रशंसनीय कहा गया है । यथा सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगृहागारान्तरौजसम् ॥२८॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार । शूद्रों की तो बात ही क्या है जैन शास्त्रों में महा म्लेच्छों तक को मुनि होने का अधिकार दिया गया है । जो मुनि हो सकता है उसके फिर कौन से अधिकार बाकी रह सकते हैं ? लब्धिसार में म्लेच्छ को भी मुनि होने का विधान इस प्रकार किया है तत्तो पडिवज्जगया अज्जमिलेच्छे मिलेच्छ अज्जेय । कमसो अवरं अवरं व वरं होदि संखं वा ॥१६॥ अर्थ-प्रतिपद्य स्थानों में से प्रथम आर्यखण्ड का मनध्य मिथ्यादृष्टि से संयमी हुआ, उसके जघन्य स्थान है । उस के बाद असंख्यात लोक मात्र षट् स्थान के ऊपर म्लेच्छखण्ड का मनुष्य मिथ्यादृष्टि से सकल संयमी (मुनि) हुआ, उसका जघन्य स्थान है । उसके ऊपर म्लेच्छ खण्ड का मनुष्य देश संयत से सकल संयमी हुआ, उसका उत्कृष्ट स्थान है । उसके बाद आर्य खण्ड का मनुष्य देश संयत से सकल संयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान है। लब्धिसार को इसी १९३ वीं गाथा की संस्कृत टीका इस पकार है___ "म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जात वैवाहिक संबंधानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा चक्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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