Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 45
________________ जैनधर्म की उदारता की वह शुद्ध सन्तान धर्म तथा जाति से च्युत होकर जैनियों का मुँह ताका करती है ! उन विचारों को इसका तनिक भी पता नहीं है कि हम धर्म और जाति च्युत क्यों हैं उनका बेटी व्यवहार बड़ी ही कठिनाई से उसी विनैकया जाति में हुआ करता है । और वे बिना देवदर्शन या पूजादि के अपना जीवन पर्ण किया करते हैं। जैनियो ! अपने वात्सल्य अंग को देखो, स्थितिकरण पर विचार करो, और अहिंसा धर्म की बड़ी बड़ी व्याख्याओं पर दृष्टिपात करो। अपने निरपराध भाइयों को इस प्रकार से मक्खी की भांति निकाल कर फेंक देना और उनकी सन्तान दर सन्तान को भी दोषी मानते रहना तथा उनके गिड़गिड़ाने पर और हजार मिन्नतें करने पर भी ध्यान नहीं देना, क्या यही वात्सल्य है ? क्या यही धर्म की उदारता है ? क्या यही अहिंसा का आदर्श है ? जब कि ज्येष्ठा आर्यिका के व्यभिचार से उत्पन्न हुआ रुद्र मुनि हो जाता है, अग्नि राजा और उसकी पत्री कृत्तिका के व्यभिचार से उत्पन्न हुआ पत्र कार्तिकेय दिगम्बर जैन साधु हो जाता है, और व्यभिचारिणी स्त्री से उत्पन्न हुआ सुदृष्टि का जीव मुनि हो कर उसी भव से मोक्ष जाता है तब हमारी समाज के कर्णधार विचारे उन परम्परागत विनैकावार या जाति च्युत दस्सा भाइयों को अभी भी जाति में नहीं मिलाना चाहते और न उन्हें जिन मन्दिर में जाकर दर्शन पूजन करने देना चाहते हैं, यह कितना भयंकर अत्याचार है ! जैन शास्त्रों को ताक में रखकर इस प्रकार का अन्याय करना जैनत्व से सर्वथा बाहर है। अतः यदि आप वास्तव में जैन हैं और जैन शास्त्रों की आज्ञा मान्य है तो अपनी समाज में एक भी जैन भाई ऐसा नहीं रहना चाहिये जो जाति या मन्दिर से वहिष्कृत रहे । सबको यथोचित प्रायश्चित्त दे कर शुद्ध कर लेना ही जैनधर्म की सच्ची उदारता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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