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जैनधर्म की उदारता विधान व्रत करने को कहा। इस व्रत में भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमा का प्रक्षाल-पूजादि भी करनी पड़ती है। मुनि और भावकों को दान देना पड़ता है तथा अनेक धार्मिक विधियां (उपवासादि) करना पड़ती हैं। उन कन्याओं ने यह सब शुद्ध अन्तःकरण से स्वीकार किया। यथा
तिस्रोपि तदुव्रतं चक्रुरुधापनक्रियायुतम् । मुनिराजोपदेशेन श्रावकाणां सहायतः ।। ५७ ॥ श्रावकब्रतसंयुक्ता बभूवुस्ताश्च कन्यकाः । तमादिब्रतसंकीर्णाः शीलांगपरिभूषिताः ॥५८ ॥ कियकाले गते कन्या प्रासाद्य जिनमन्दिरम् । सपर्या महता चक्रर्मनोवाकायशुद्धितः॥ ५६ ॥ ततः आयुक्षयें कन्याः कृत्वा समाधिपंचताम् । अर्हद्वीजाक्षर स्मृत्वा गुरुपादं प्रणम्य च ॥६०॥ पंचमे दिवि संजाता महादेवा स्फुरत्प्रभाः। संछित्वा रमणीलिंग सानंदयौवनान्विताः ॥६१ ॥
-गौतमचरित्र तीसरा अधिकार । अर्थात्-उन तीनों शूद्र कन्याओं ने मुनिराज के उपदेशानुसार श्रावकों की सहायता से उद्यापन क्रिया सहित लब्धिविधान ब्रत किया । तथा उन कन्याओं ने श्रावक के. व्रत धारण करके क्षमादि दश धर्म और शीलब्रत धारण किया। कुछ समय बाद उन शूद्र कन्याओं ने जिन मन्दिर में जाकर मन वचन काय की शुद्धतापर्तक जिनेन्द्र भगवान की बड़ी पूजा की। फिर आयु पूर्ण होने पर वे कन्यायें समाधिमरण धारण करके अर्हन्त देव के बीमाक्षरों को स्मरण करती हुई और मुनिराज के चरणों को नमस्कार करके स्त्रीपर्याय छेद कर पांचवें स्वर्ग में देव हुई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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