Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 47
________________ ३४ जैनधर्म की उदारता में लक्ष्मीमती की कथा है । उसे अपनी ब्राह्मण जाति का बहुत अभिमान था । इसी से वह दुर्गति को प्राप्त हुई । इसलिए ग्रंथकार उपदेश देते हुए लिखते हैं कि मानतो ब्राह्मणी जाता क्रमाद्धीवरदेहजा। जातिगर्यो न कर्तव्यस्ततः कुत्रापि धीधनः॥४५-१६॥ अर्थात्-जाति गर्व के कारण एक ब्राह्मणी भी ढीमर की लड़की हुई, इसलिए विद्वानों को जातिका गर्व नहीं करना चाहिये। इधर तो जाति का गर्व न करने का उपदेश देकर उदारता का पाठ पढ़ाया है और उधर जाति गर्वके कारण पतित होकर ढीमर के यहां उत्पन्न होने वाली लड़की का आदर्श उद्धार बता कर जैन धर्म की उदारता को और भी स्पष्ट किया है । यथा-- ततः समाधिगुप्तेन मुनीन्द्रेण प्रजल्पितम् । धर्ममाकये जैनेन्द्रं सुरेन्द्रायः समर्चितम् ॥ २४ ॥ संजाता तुल्लिका तत्र तपः कृत्वा स्वशक्तितः । मत्वास्वर्ग समासाद्य तस्मादागत्य भूतले ॥२५॥ आराधना कथा कोश नं० ४५॥ अर्थात्--समाधिगुप्त मुनिराज के मुख के जैनधर्म का उपदेश सुनकर वह ढीमर (मच्छीमार) की लड़की क्षुल्लिका होगई और शान्ति पर्वक तप करके स्वर्ग गई । इत्यादि। इस प्रकार से एक शूद्र ( ढीमर) की कन्या मुनिराज का उपदेश सुनकर जैनियों की पूज्य क्षुल्लिका हो जाती है । क्या यह जैनधर्म की कम उदारता है ? ऐसे उदारता पूर्ण अनेक उदाहरण तो इसी पुस्तक के अनेक प्रकरणों में लिखे जा चुके हैं और ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण और भी उपस्थित किए जा सकते हैं जो जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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