Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 40
________________ शास्त्रीय दण्ड विधान दुराचारियों का दुराचार छुड़ाकर उन्हें साधर्मी बनाने से धर्म व समाज लांछित नहीं होता है, किन्तु लांछित होताहै तब जबकि उसमें दुराचारी और अन्यायी लोग अनेक पाप करते हुये भी मूंछों पर ताव देवें और धर्मात्मा बने बैठे रहें । विष के खाने से मृत्य हो जाती है लेकिन उसी विष को शुद्ध करके सेवन करने से अनेक रोग दूर हो जाते हैं। प्रत्येक विवेकी व्यक्ति का हृदय इस बात की गवाही देगा कि अन्याय, अभक्ष्य, अनाचार और मिथ्यात्व का सेवन करने वाले जैन से वह अजैन लाख दरजे अच्छा है जो इन बातों से परे है और अपने परिणामों को सरल एवं निर्मल बनाये रखता है। मगर खेद का विषय है कि आज हमारी समाज दूसरों को अपनावे, उन्हें धर्म मार्ग पर लावे यह तो दूर रहा, किन्तु स्वयं ही गिर कर उठना नहीं चाहती, बिगड़ कर सुधरना उसे याद नहीं है। इस समय एक कवि का वाक्य याद आ जाता है कि "अय कौम तुझको गिर के उभरना नहीं आता । इक वार बिगड़ कर के मुधरना नहीं आता ॥" यदि किसी साधर्मी भाई से कोई अपराध बन जाय और वह प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने को तैयार हो तो भी हमारी समाज उस पर दया नहीं लाती। समाज के सामने वह विचारा मनुष्यों की गणना में ही नहीं रह जाता है । उसका मुसलमान और ईसाई हो जाना मंजर, मगर फिर से शुद्ध होकर वह जैनधर्मी नहीं हो सकता, जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन नहीं कर सकता, समाज में एक साथ नहीं बैठ सकता और किसी के सामने सिर ऊँचा करके नहीं देख सकता; यह कैसी विचित्र विडंबना है ! उदारचेता पूर्वाचार्य प्रणीत प्रायश्चित्त संबंधी शाखों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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