Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ ३६ जैनधर्म की उदारता कि हमारी समाज ने इस ओर बहुत दुर्लक्ष्य किया है; इसी लिये उसने हानि भी बहुत उठाई है । सभ्य संसार इस बात को पुकार पुकार कर कहता है कि अगर कोई अंधा पुरुष ऐसे मार्ग पर जा रहा हो कि जिस पर चल कर उसका आगे पतन हो जायगा, भयानक कुये में जा गिरेगा और लापता हो जायगा तो एक दयालु समझदार एवं विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिये कि वह उस अंधे का हाथ पकड़ कर ठीक मार्ग पर लगादे, उसको भयानक गर्त से उबार ले और कदाचित वह उस महागर्त में पड़ भी गया हो तो एक सहृदयी व्यक्ति का कर्तव्य है कि जब तक उस अंधे की श्वास चल रही है, जब तक वह अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा है तब तक भी उसे उभार कर उसकी रक्षा करले । बस, यही परम दया धर्म है, और यही एक मानवीय कर्तव्य है । इसी प्रकार जब हमें यह अभिमान है कि हमारा जैनधर्म परम उदार है, सार्वधर्म है, परमोद्धारक मानवीय धर्म है तथा यही सच्ची दृष्टि से देखने वाला धर्म है तब हमारा कर्तव्य होना चाहिये कि जो कुमार्गरत हो रहे हैं, जो सत्यमार्ग को छोड़ बैठे हैं, तथा जो मिध्यात्व, अन्याय और अभक्ष्य को सेवन करते हैं उन्हें उपदेश देकर सुमार्ग पर लगावें । जिस धर्म का हमें अभिमान है उस से दूसरों को भी लाभ उठाने देवें । लेकिन जिनका यह भ्रम है कि अन्याय सेवन करने वाला, मांस मदिरा सेवी, मिध्यात्वी एवं विधर्मी को अपना धर्म कैसे बताया जावे, उन्हें कैसे साधर्मी बनाया जावे, उनकी यह भारी भूल है । अरे ! धर्म तो मिध्यात्व, अन्याय और पापों से छुड़ाने वाला ही होता है । यदि धर्म में यह शक्ति न हो तो पापियों का उद्धार कैसे हो सकता है ? और जो अधर्मियों को धर्म पथ नहीं बतला सकता वह धर्म ही कैसे कहा जा सकता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76