Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 41
________________ २८ जैनधर्म की उदारता देखिये तो मालूम होगा कि उनमें कैसे कैसे पापी, हिंसक, दुराचारी और हत्यारे मनुष्यों तक को दण्ड देकर पुनः स्थितिकरण करने का विधान किया गया है । इस विषय में विशेष न लिखकर मात्र दो श्लोक ही दिये जाते हैं जिनसे आप प्रायश्चित्त शास्त्रों की उदारता का अनुमान लगा सकेंगे । यथा साधृपासकबालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । यावद् द्वादशमासाः स्यात् षष्ठमाधहानियुक् ॥ -प्रायश्चित्त समुच्चय । अर्थात्-साधु, उपासक, बालक,स्त्री और गाय के वध(हत्या) का प्रायश्चित्त क्रमशः आधी आधी हानि सहित बारह मास तक षष्ठोपवास (वेला) है। इसका मतलब यह है कि साधु का घात करने वाला व्यक्ति - १२ माह तक एकान्तरे से उपवास करे, और इसके आगे उपासक बालक, स्त्री और गाय की हत्या में आधे आधे करे। पुनश्च तृणमांसात्पतत्सर्पपरिसर्पजलौकसां। चतुर्दर्शनवाद्यन्तक्षमणा निवधे छिदा ॥ प्रा०चू०॥ अर्थात-मृग आदि तृणचर जीवों के घात का १४ उपवास, सिंह आदि मांस भक्षियों के घात का १३ उपवास, मयूरादि पक्षियों के घात का १२ उपवास, सर्पादि के मारने का ११ उपवास, सरट आदि परिसपों के घातका १० उपवास और मत्स्यादि जलचर जीवों के घात का ९ उपवास प्रायश्चित बताया गया है। इतने मात्र से मालूम हो जायगा कि जैनधर्म में उदारता है, प्रेम है, उद्धारकपना है, और कल्याणकारित्व है । एक वार गिरा हुआ व्यक्ति उठाया जा सकता है, पापी भी निष्पाप बनाया जा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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