Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 37
________________ २४ जैनधर्म की उदारता अधिकार देना ही धर्म की उदारता है । जो लोग मनुष्यों में भेद देखते हैं उनके लिये आचाय लिखते हैं__ "नास्ति जाति कृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत्" गुण भद्राचार्य। अर्थात्- जिस प्रकार पशुओं में या तिर्यंचों में गाय और घोड़े आदि का भेद होता है उस प्रकार मनुष्यों में कोई जाति कृत भेद नहीं है । कारण कि “मनुष्य जातिरकेव" मनुष्य जाति तो एक ही है । फिर भी जो लोग इन प्राचार्य वाक्यों की अवहेलना करके मनुस्यों को सैकड़ों नहीं हजारों जातियों में विभक्त करके उन्हें नीच ऊँच मान रहे हैं उनको क्या कहा जाय ? ____ याद रहे कि आगम के साथ ही साथ जमाना भी इस बात को बतला रहा है कि मनुष्य मात्र से बंधुत्वका नाता जोड़ो, उनसे प्रेम करो और कुमार्गपर जाते हुये भाइयाको सन्मार्ग बताओ तथा उन्हें शुद्ध करके अपने हृदय से लगालो । यही मनुष्य का कर्तव्य है यही जीवन का उत्तम कार्य है और यही धर्म का प्रधान अंग है। भला मनुष्यों के उद्धार समान और दूसरा धर्म क्या होसकता है ? जो मनुष्यों से घणा करता है उसने न तो धर्म को पहिचाना है और न मनुष्यता को ? वास्तव में जैन धर्म तो इतना उदार है कि जिसे कहीं भी शरण न मिले उसके लिये भी जैन धर्म का फाटक हमेशा खुला रहता है । जब एक मनुष्य दुराचारी होने से जाति वहिष्कृत और पतित किया जा सकता है तथा अधर्मात्मा करार दिया जा सकता है तब यह बात स्वयं सिद्ध है कि वही अथवा अन्य व्यक्ति सदाचारी होने से पुनः जाति में आ सकता है, पावन हो सकता है और धर्मात्मा बन सकता है । समझ में नहीं आता कि ऐसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com

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