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जैन धर्म की उदारता मुनि श्री सूर्यसागर जी महाराज का यह वक्तब्य जैनधर्म की उदारता और वर्तमान जैनों की संकुचित मनोवत्ति को स्पष्ट सूचित करता है । लोगों ने स्वार्थ, कषाय, अज्ञान एवं दुराग्रह के बशीभूत होकर उदार जैन मार्ग को कंटकाकीर्ण, संकुचित एवं भ्रम पूर्ण बना डाला है । अन्यथा यहाँ तो महा पापियों का उसी भवमें उद्धार होगया है। देखिये एक धीमर(मच्छीमार) की लड़की उसी भव में क्षुल्लिका होकर स्वर्ग गई थी । यथाततः समाधिगुप्तेन मुनीन्द्रेण प्रजल्पितं । धर्ममाकर्ण्य जैनेन्द्रं सुरेन्द्रायै समर्षितम् ॥ २४ ॥ संजाता क्षुल्लिका तत्र तपः कृत्वा स्वशक्तितः । मृत्वा स्वर्ग समासाद्य तस्मादागत्य भूतले ॥ २५ ॥
__ आराधना कथा कोश कथा ४५ ॥ अर्थात् मुनिश्री समाधि गुप्त के द्वारा निरूपित तथा देवों से पूज्य जिनधर्मका श्रवण करके 'काणा' नामकी धीमर (मच्छीमार) की लड़की क्षुल्लिका हो गई और यथा शक्ति तप कर के स्वर्ग को गई।
जहां मांस भक्षी शूद्र कन्या इस प्रकार से पवित्र होकर जैनों की पूज्य हो जाती है, वहां उस धर्म की उदारता के सम्बन्ध में और क्या कहा जाय ? एक नहीं, ऐसे पतित पावन अनेक व्यक्तियों का चरित्र जैन शास्त्रोंमें भरा पड़ा है । उनसे उदारता की शिक्षा ग्रहण करना जैनों का कर्तव्य है। ___यह खेद की बात है कि जिन बातों से हमें परहेज करना चाहिये उनकी ओर हमारा तनिक भी ध्यान नही है और जिनके विषय में धर्म शास्त्र एवं लोक शास्त्र खुली आज्ञा देते हैं या जिनके
अनेक उदाहरण पूर्वाचार्य प्रन्थों में लिख गये हैं उन पर ध्यान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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