Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 31
________________ १८ जैन धर्म की उदारता को योग्यतानुसार श्रेणी विभाग है जब कि गोत्र का आधार कम पर है । अतः गोत्रकर्म कुल की अथवा व्यक्ति की प्रतिष्ठा अथवा अप्रतिष्ठा के अनसार उच्च और नीच गोत्री होसकता है। इसप्रकार गोत्र की की शास्त्रीय व्याख्या सिद्ध होने पर जैन धर्मकी उदारता स्पष्ट मालम होजाती है । ऐसा होने पर ही जैन धर्म पतित पावन या दीनोद्धारक सिद्ध होता है । पतितों का उद्धार । जैन धर्म की उदारता पर ज्यों २ गहरा विचार किया जाता है त्यों त्यों उसके प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती है । जैन ने महान पातकियों को पवित्र किया है, दुराचारियों को सन्मार्ग पर लगाया है, दीनों को उन्नत किया है और पतित का उद्धार करके अपना जगबन्धुत्व सिद्ध किया है । यह बात इतने मात्रसे सिद्ध होजाती है कि जैनधर्म में वर्ण और गोत्र को कोई स्थाई, अटल या जन्मगत स्थान नहीं है । जिन्हें जातिका कोई अभिमान है उनके लिये जैन ग्रंथकारों ने इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में लिखकर उस जाति अभिमान को चूर चूर कर दिया है कि न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वथा शुद्धशीलता । कालेननादिना गोत्रे स्खलनं क न जायते ॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तात्विका यस्यां सा जातिमहती मता ॥ अर्थात् --ब्राह्मण और अब्राह्मण की सर्वथा शुद्धि का दावा नहीं किया जासकता है, कारण कि इस अनादि काल में न जाने किसके कुल या गोत्र में कब पतन होगया होगा! इस लिये वास्तव में उच्च जाति तो वही है जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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