Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 30
________________ गोत्र परिवर्तन का साताके रूपमें संक्रमण (परिवर्तन) हो सकता है उसी प्रकार से नीचगोत्र का ऊँच गोत्र के रूप में भी परिवर्तन ( संक्रमण) होना सिद्धान्त शास्त्र से सिद्ध है । अतः किसो को जन्म से मरने तक नीचगोत्री ही मानना दयनीय अज्ञान है । हमारे सिद्धान्त शास्त्र पुकार २ कर कहते हैं कि कोई भी नीच से नीच या अधम से अक्षम व्यक्ति उंच पद पर पहुंच सकता है और वह पावन बन जाता है । यह बात तो सभी जानते हैं कि जो आज लोकदृष्टि में नीच था वही कल लोकमान्य, प्रतिष्ठित एवं महान होजाता है । भगवान अकलंक देव ने राजवार्तिक में ऊंच नीच गांत्र की इस प्रकार व्याख्या की हैयस्योदयात् लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् ॥ गर्हितेषु यत्कृतं तन्नीचैर्गोत्रम् ।। गर्हि तेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाः कुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्र प्रयेतव्यम् ॥ ऊंच नीच गोत्रकी इस व्याख्या से मालम होता है कि जो लोकपाजत-प्रतिष्ठित कुलों में जन्म लेते हैं वे उच्चगोत्री हैं और जो गर्हित अर्थात दुखी दरिद्री कुल में उत्पन्न होते हैं वे नीच गोत्री हैं । यहां पर किसी भी वर्ण की अपेक्षा नहीं रखी गई है। ब्राह्मण होकर भी यदि वह निद्य एवं दीन दुखी कुल में है तो नीच गोत्र वाला है और यदि शद्र होकर भी राजकुल में उत्पन्न हुआ है अथवा अपने शुभ कृत्यों से प्रतिष्ठित है तो वह उच्च गोत्र वाला है। वर्ण के साथ गोत्र का कोई भी संबंध नहीं है। कारण कि गोत्रकर्म की व्यवस्था तो प्राणीमात्र में सर्वत्र है, किन्तु वर्णव्यवस्था तो भारतवर्ष में ही पाई जाती है । वर्णव्यवस्था मनुष्यों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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