Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ पतितों का उद्धार दमन और दया पाई जाती हो। ___ इसी प्रकार और भी अनेक ग्रंथों में वर्ण और जाति कल्पना की धज्जी उडाई गई है। प्रमेय कमल मार्तण्ड में तो इतनी खूबी से जाति कल्पना का खरडन किया गया है कि अच्छों अच्छों की बोलती बन्द होजाती है। इससे सिद्ध होता है कि जैनधर्ममें जाति की अपेक्षा गुणों के लिये विशेष स्थान है । महा नीच कहा जाने वाला व्यक्ति अपने गुणों से उच्च हो जाता है, भयंकर दुराचारी प्रायश्चित्त लेकर पवित्र हो जाता है और कैसा भी पतित व्यक्ति पावन बन सकता है । इस संबन्ध में अनेक उदाहरण पहिले दो प्रकरणों में दिये गये हैं। उनके अतिरिक्त और भी प्रमाण देखिये। स्वामी कार्तिकेय महाराज के जीवन चरित्र पर यदि दृष्टिपात किया जावे तो मालूम होगा कि एक व्यभिचारजात व्यक्ति भी किस प्रकार से परम पूज्य और जैनियों का गुरू हो सकता है । उस कथा का भाव यह है कि अग्नि नामक राजा ने अपनी कृत्तिका नामक पुत्री से व्यभिचार किया और उससे कार्तिकेय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । यथा स्वपुत्री कृत्तिका नानी परिणीता स्वयं हठात् । कैश्चिदिनैस्ततस्तस्यां कार्तिकेयो सुतोऽभवत् ।। इसके बाद जब व्यभिचारजात कार्तिकेय बड़ा हुआ और पिता कहो या नाना का जब यह अत्याचार ज्ञात हुआ तब विरक्त होकर एक मुनिराज के पास जाकर जैन मुनि होगया । यथा नत्वा मुनीन् महाभक्तया दीक्षामादाय स्वर्गदाम् । मुनिर्जातो जिनेन्द्रोक्तसप्ततत्वविचक्षणः॥ -आराधना कथाकोश की ६६ वीं कथा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76