Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 20
________________ उच्च और नीच में सम भाव ___ बड़े ही खेद का विषय है कि हम आज सम्यक्त के इस प्रधान अंग को भूल गये हैं और अभिमान के वशोभत हो कर अपने को ही सर्व श्रेष्ठ समझते हैं। तथा दीन दरिद्री और दुखियों को नित्य ठुकरा कर जाति मद में मत्त रहते हैं । ऐसे अभिमानियों का मस्तक नीचा करनेके लिये पंचाध्यायोकार ने स्पष्ट लिखा है कि नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं सम्पदा पदम् । नासावस्मत्समो दीनो वराको विपदां पदम् ॥५८४॥ अर्थात्-मन में इस प्रकार का अज्ञान नहीं होना चाहिये कि मैं तो श्रीमान हूँ, बड़ा हूं, अतः यह विपत्तियोंका मारा दीनदरिद्री हमारे समान नहीं हो सकता है । प्रत्युत प्रत्येक दीन हीन व्यक्ति के प्रति समानता का व्यवहार रखना चाहिये। जो व्यक्ति जाति मद या धन मद में मत्त होकर अपने को बड़ा मानता है वह मूख है, अज्ञानी है । लेकिन जिसे मनन्य तो क्या प्राणीमात्र सदृश मालूम हों वही सम्यग्दृष्टि है, वहीं ज्ञानी है, वही मान्य है, वही उच्च है, वही विद्वान् है, वही विवेका है और वही सच्चा पण्डित है । मनुष्यों की तो बात क्या किन्तु त्रस स्थावर प्राणीमात्र के प्रति सम भाव रखने का पंचाध्यायीकार ने उपदेश दिया है । यथा प्रत्यत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजाः। प्राणिनः सदृशाः सर्वे त्रसस्थावरयोनयः ॥५८॥ अर्थात्-दीन हीन प्राणियों के प्रति घणा नहीं करना चाहिये प्रत्युत ऐसा विचार करना चाहिये कि कर्मों के मारे यह जीव त्रस और स्थावर योनि में उत्पन्न हुये हैं, लेकिन हैं सब समान ही। तात्पर्य यह है कि नीच ऊँच का भेदभाव रखने वाले को महा अज्ञानो बताया है और प्राणीमात्र पर सम भाव रखने वाले को सम्यग्दृष्टि और सच्चा ज्ञानी कहा है । इन बातों पर हमें विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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