Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 18
________________ पापियों का उद्धार अर्थात--व्रतों से युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया इस लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को अपनी जाति का गर्व नहीं करना चाहिये। यहाँ पर जातिमद का कैसा सुन्दर निराकरण किया गया है! जैनाचार्यों ने नीच ऊँच का भेद मिटाकर, जाति पांति का पचड़ा तोड़ कर और वर्ण भेद को महत्व न देकर स्पष्ट रूप से गुणों को ही कल्याणकारी बताया है । अमितगति प्राचार्य ने इसी बात को इन शब्दों में लिखा है कि-- शीलवन्तो गताः स्वर्गे नीचजातिभवा अपि । कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ॥ अर्थात्-जिन्हें नीच जाति में उत्पन्न हुआ कहा जाता है वे शील धर्म को धारण करके स्वर्ग गये हैं और जिन के लिये उच्च कुलीन होने का मद किया जाता है ऐसे दुराचारी मनुष्य नरक गये हैं। ___इस प्रकार के उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जितनी उदारता, जितना वात्सल्य और जितना अधिकार जैनधर्म ने ऊंच नीच सभी मनुष्यों को दिया है उतना अन्य धमों में नहीं हो सकता । जैनधर्म में हो यह विशेषता है कि प्रत्येक व्यक्ति नर से नारायण हो सकता है । मनुष्य की बात तो दूर रही मगर भगवान समन्तभद्र के कथनानुसार तो "वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्" अर्थात्-धर्म धारण करके कुत्ता भी देव हो सकता है और पाप के कारण देव भी कुत्ता हो जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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