Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 16
________________ पापियों का उद्धार अहो श्रेष्ठिन् ! जिनाधीशचरणार्चनकोविद । अहं चौरो महापापी दृढ़सूर्याभिधानकः॥३१॥ त्वत्प्रसादेन भो स्वामिन् स्वर्गे सौधर्मसंज्ञके। देवो महर्द्धिको जातो ज्ञात्वा पूर्वभवं सुधीः॥३२॥ -आराधनाकथा नं. २३ वीं। अर्थात्-जिन चरण पूजन में चतुर हे श्रेष्ठो ! मैं दृढ़सूर्य नामक महापापी चोर आपके प्रसाद से सौधर्म स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हुअा हूँ। इस कथा से यह तात्पर्य निकलता है कि प्रत्येक जैन का कर्तव्य महापापी को भी पाप मार्ग से निकाल कर सन्मार्ग में लगाने का है । जैनधर्म में यह शक्ति है कि वह महापापियों को शुद्ध करके शुभ गति में पहुँचा सकता है । यदि जैनधर्म की उदारता पर विचार किया जावे तो स्पष्ट मालूम होगा कि विश्वधर्म बनने की इसमें शक्ति है या जैनधर्म ही विश्वधर्म हो सकता है। जैनाचार्यों ने ऐसे ऐसे पापियों को पुण्यात्मा बनाया है कि जिनकी कथायें सुनकर पाठक आश्चर्य करेंगे। अनंगसेना नाम की वेश्या अपने वेश्या कर्म को छोड़कर जैन दीक्षा ग्रहण करती है और जैनधर्म की आराधना करके स्वर्ग में जाती है । इसके अतिरिक्त यशोधर मुनि महाराज ने मत्स्यभक्षी मृगसेन धीवर को णमोकार मंत्र दिया और ब्रत ग्रहण कराया, जिससे वह मर कर श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न हुआ । यमपाल चाण्डाल की कथा तो जैनधर्म की उदारता प्रगट करने को सूर्य के समान है । जिस चाण्डाल का काम लोगों को फांसी पर लटका कर प्राण नाश करना था वही अछूत कहा जाने वाला पापात्मा थोड़े से व्रत के कारण देवों द्वारा अभिषिक्त और पूज्य हो जाता है । यथाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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