Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 22
________________ उच्च और नीच में सम भाव और पतित से पतित शूद्र कहलाने वाले मनुष्यों को उस समय अपनाया था जब कि ब्राह्मण जाति उनके साथ पशु तुल्य ही नहीं किन्तु इससे भी अधम व्यवहार करती थी। जैनधर्म का दावा है कि घोर पापी से पापी या अधम नीच कहा जाने वाला . व्यक्ति जैन धर्म की शरण लेकर निष्पाप और उच्च हो सकता। है । यथा महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजैनधर्मतः । भवेत् त्रैलोक्यसंपूज्यो धर्माकि भो परं शुभम् । अर्थात्-घोर पाप को करने वाला प्राणी भी जैन धर्म धारण करने से त्रैलोक्य पूज्य हो सकता है। जैनधर्म की उदारता इसी बात से स्पष्ट है कि इसको मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारकी सभी धारण करके अपना कल्याण कर सकते हैं। जैनधर्म पाप का विरोधी है पापी का नहीं । यदि वह पापी का भी विरोध करने लगे, उनसे घणा करने लग जावे तो फिर कोई भी अधम पर्याय वाला उच्च पर्याय को नहीं पा सकेगा और शुभाशुभ कर्मों की तमाम व्यवस्था ही बिगड़ जायगीः। कथा ग्रन्थों से पता लगेगा कि जैनधर्म ने नीचातिनीच पापात्माओं को पवित्र करके परमपद पर पहुंचाया है। __कपिल ब्राह्मण ने गुरुदत्त मुनि को आग लगाकर जला डाला था, फिर भी वह पापी अपने पापों का पश्चात्ताप करके स्वयं मुनि होगया था । ज्येष्ठा आर्यिका ने एक मुनि से शील भ्रष्ट होकर पुत्र प्रसव किया था, फिर भी वह पनः शुद्ध होकर आर्यिका होगई थी और स्वर्ग गई । राजा मधु ने अपने माण्डलिक राजा की स्त्री को अपने यहां बलात्कार से रख लिया था और उससे विषय भोग करता था, फिर भी वह दोनों मुनि दान देते थे और अन्त में दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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