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जैनधर्म की उदारता क्या हो सकता है ? अमितगति आचार्यने उक्त कथन में तो जातियों को कपूर की तरह उड़ा दिया है । तथा यह स्पष्ट घोषित किया है कि जातियाँ काल्पनिक हैं वास्तविक नहीं! उनका विभाग शुभ और अशुभ आचरण पर आधार रखता है न कि जन्म पर । तथा कोई भी जाति स्थायी नहीं है । यदि कोई गणी है तो उसकी. जाति उच्च है और यदि कोई दुर्गुणी है तो उसकी जाति नष्ट होकर नीच हो जाती है। इससे सिद्ध है कि नीच से नीच जाति में उत्पन्न हुआ व्यक्ति शुद्ध होकर जैन धर्म धारण कर सकता है और वह उतना ही पवित्र हो सकता है जितना कि जन्म से धन का ठेकेदार मानेजाने वाला एक जैन होता है। प्रत्येक व्यक्ति जैनी बन कर आत्मकल्याण कर सकता है । जब कि अन्य धर्मों में जाति वर्ण या समूह विशेष का पक्षपात है तब जैनधर्म इससे बिलकुल ही अछूता है । यहां पर किसी जाति विशेष के प्रति राग द्वेष नहीं है, किन्तु मात्र आचरण पर ही दृष्टि रक्खी गई है । जो आज ऊँचा है वही अनार्यों के आचरण करनेसे नीच भी बन जाता है । यथा"अनार्यमाचरन् किंचिज्जायते नीचगोचरः"
_ --रविषेणाचार्य । जैन समाज का कर्तव्य है कि वह इन आचार्य वाक्यों पर विचार करे, जैन धर्म की उदारता को समझे और दूसरों को निःसंकोच जैन धर्म में दीक्षित करके अपने समान बनाले । कोई भी व्यक्ति जब पतित पावन जैन धर्म को धारण करले तब उसको तमाम धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार देना चाहिये और उसे अपने भाई से कम नहीं समझना चाहिये । यथा
विप्रक्षत्रियविटशूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः ।
जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बांधवोपमाः।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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