Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 26
________________ वर्ण परिवर्तन १३ अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो आचरण के भेद से कल्पित किये गये हैं । किन्तु जब वे जैन धर्म धारण कर लेते हैं तब सभी को अपने भाई के समान ही समझना चाहिये। ___ इसीसे मालूम होगा कि जैनधर्म कितना उदार है और उसमें आते ही प्रत्येक व्यक्ति के साथ किस प्रकार से प्रेम व्यवहार करने का उपदेश दिया गया है। किन्तु जैनधर्म की इस महान् उदारता को जानते हुये भी जिनकी दुर्बुद्धि में जाति मद का विष भरा हुआ है उनसे क्या कहा जाय ? अन्यथा जैनधर्म तो इतना उदार है कि कोई भी मनुष्य जैन होकर तमाम धार्मिक एवं सामाजिक अधिकारों को प्राप्त कर सकता है। वर्ण परिवर्तन । कुछ लोगोंकी ऐसी धारणा है कि जाति भले बदल जाय मगर वर्ण परिवर्तन नहीं हो सकता है, किन्तु उनकी यह भूल है कारण कि वर्ण परिवर्तन हुये बिना वर्ण की उत्पत्ति एव उसकी व्यवस्था भी नहीं हो सकती थी। जिस ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च माना गया है उसकी उत्पत्ति पर तनिक विचार करिये तो मालूम होगा कि बह तीनों वर्गों के व्यक्तियों में से उत्पन्न हुआ है । आदिपराण में लिखा है कि जब भरत राजा ने ब्राह्मण वर्ण स्थापित करने का विचार किया तब राजाओं को प्राज्ञा दी थी कि:सदाचारैर्निजैरिष्टैरनुजीविभिरन्विताः । अद्यास्मदुत्सवे यूयमायातेति प्रथक् प्रथक् ॥ पर्व ३८-१० ॥ __अर्थात्-आप लोग अपने सदाचारी इष्ट मित्रों सहित तथा नौकर चाकरों को लेकर आज हमारे उत्सव में आओं। इस प्रकार भरत चक्रवर्तीने राजाप्रजा और नौकर चाकरों को बुलाया था, उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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