Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 24
________________ उच्च और नीच में सम भाव होना ही चाहिये इसकी क्या जरूरत है ? जिस जाति को श्राप नीच समझते हैं उसमें क्या सभी लोग पापी, अन्यायी, अत्याचारी या दुराचारी होते हैं ? अथवा जिसे आप उच्च समझ बैठे हैं उस जाति में क्या सभी लोग धर्मात्मा और सदाचारी के अवतार होते हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर आपको किसी वर्ण को ऊंच या नीच कहने का क्या अधिकार है ? हां, यदि भेद व्यवस्था करना ही हो तो जो दुराचारी है उसे नीच और जो सदाचारी है उसे ऊंच कहना चाहिये । श्रीरविषेणाचार्य ने इसी बात को पद्मपुराण में इस प्रकार लिखा है कि चातुर्वण्य यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धं भवने गतम् ॥ अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या चाण्डालादिक का तमाम विभाग आचरण के भेद से ही लोक में प्रसिद्ध हुआ है । इसी बात का समर्थन और भी स्पष्ट शब्दों में प्राचार्य श्री अमितगति महाराज ने इस प्रकार किया है कि आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् । न जातिब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी ।। गुणैः संपद्यते जातिगुणध्वंसर्पिद्यते ॥ अर्थात्-शुभ और अशुभ आचरण के भेद से ही जातियों में भेद की कल्पना की गई है, लेकिन ब्राह्मणादिक जाति कोई कहीं पर निश्चित, वास्तविक या स्थाई नहीं है। कारण कि गणों के होने से ही उच्च जाति होती है और गुणों के नाश होने से उस जाति का भी नाश होजाता है। पाठको ! इससे अधिक स्पष्ट, सुन्दर तथा उदार कथन और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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