Book Title: Jain Dharm Ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Joharimalji Jain Saraf

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Page 11
________________ [२] इस्लाम यदि मुस्लिम जगत में भ्रातृभाव को सिरजता है तो मुस्लिमवाह्य -जगत उसके निकट 'काफिर'-उपेक्षा जन्य है । पशु जगत के लिए उसमें ठौर नहीं-पशुओं को वह अपनी आसाइश की वस्तु समझता है ! तब आज के इस्लाम वाले 'धर्म'का दावा किस तरह कर सक्ते हैं, यह पाठक स्वयं विचारें। वैदिक धर्म इस्लाम से भी पिछड़ा मिलता है । सारे वैदिकधर्मानुयायी उसमें एक नहीं हैं ! वर्णाश्रम धर्म-रक्त शुद्धि की भ्रान्तमय धारणा पर एक वेद भगवान के उपासकों को वे टुकड़ों टुकड़ों में बांट देते हैं । शूद्रों और स्त्रियों के लिए वेद-पाठ करना भी वर्जित कर दिया जाता है । जब मनष्यों के प्रति यह अनुदारता है, तब भला कहिये पशु-पक्षियों की वहाँ क्या पूछ होगी ? शायद पाठकगण ईसाई मत को 'धर्म' के अति निकट समझे ! किन्तु आज का ईसाई जगत अपने दैनिक व्यवहार से अपने को 'धर्म' से बहुत दूर प्रमाणित करता है । अमेरिका में काले-गोरे का भेद-यूरोप में एक दूसरे को हड़प जाने की दुर्नीति ईसाईयों को विवेक से अति दूर भटका सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। सचमुच यथार्थ 'धर्म' प्राणीमात्र को समान रूप में सुखशान्ति प्रदान करता है- उसमें भेद भाव हो ही नहीं सकता ! मनुष्य मनुष्य का भेद अप्राकृतिक है ! एक देश और एक जाति के लोग भी काले-गोरे-पीले-उच्च-नीच-विद्वान्-मूढ-निर्बलसबल-सब ही तरह के मिलते हैं । एक ही मां की कोख से जन्मे दो पुत्र परस्पर-विरुद्ध प्रकृति और आचरण को लिए हुए दिखते हैं । इस स्थिति में जन्मगत अन्तर उनमें नहीं माना जा सक्ता । हम कह चुके हैं कि धर्म जीव मात्र का प्रात्म-स्वभाव ( अपना२ धर्म) है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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