Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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__ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/१३ . अंजन ने कहा- “देवी! यह बात तो मेरे लिए बहुत ही आसान है।" ऐसा कहकर वह चतुर्दशी की अन्धेरी रात में राजमहल में गया
और रानी के गले का हार चुराकर भागने लगा । रानी का अमूल्य रत्नहार चोरी होने से चारों ओर शोर मच गया । सिपाही दौड़े, उन्हें चोर तो दिखाई नहीं देता था, लेकिन उसके हाथ में पकड़ा हुआ हार अन्धेरे में जगमगाता हुआ दिखाई देता था, उसे देखकर सिपाही उसे पकड़ने के लिए पीछे भागे । पकड़े जाने के भय से हार दूर फेक कर अंजन चोर भाग गया और श्मशान में पहुँचा । थक जाने के कारण एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया, वहाँ उसने एक आश्चर्यकारी घटना देखी ।
एक मनुष्य को उसने पेड़ के ऊपर एक सींका बाँध कर उसमें चढ़ते-उतरते देखा, जो कुछ बोल भी रहा था । “कौन था वह मनुष्य?
और इतनी अन्धेरी रात में यहाँ क्या कर रहा था?" .. [पाठको! चलो, हम उस अंजन चोर को थोड़ी देर यहीं खड़ा रहने दें और उस अनजान मनुष्य की पहिचान करें। ]
। अमितप्रभ और विद्युत्तम नाम के दो देव पूर्व भव में मित्र थे। अमितप्रभ तो जैनधर्म का भक्त था और विद्युत्प्रभ कुधर्म को मानता था । एक बार वे दोनों धर्म की परीक्षा करने निकले । .
रास्ते में एक अज्ञानी तपस्वी को तप करते हुए देखकर उन्होंने उसकी परीक्षा करनी चाही । उस तपस्वी को विद्युत्प्रभ ने कहा- “अरे बाबा! पुत्र के बिना सद्गति नहीं होती- ऐसा शास्त्र में कहा है ।"
ऐसा सुनकर वह तपस्वी तो झूठे धर्म की श्रद्धा से उत्पन्न हुआ वैराग्य छोड़ कर संसार-भोग भोगने चला गया । लेकिन यह देखकर विद्युत्प्रभ की कुगुरुओं की श्रद्धा तो छूट गई । लेकिन बाद में उसने कहा- “अब जैन गुरु की परीक्षा करेंगे ।"
. तब अमितप्रभ ने उसे कहा-“हे मित्र ! जैन साधु तो परम वीतरागी होते हैं, उनकी तो बात ही क्या करें । अरे, उनकी परीक्षा