Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/५० सात सौ मुनियों की रक्षा करने के लिए याचक बने ! ऐसा है धर्म वात्सल्य !! ..मूर्ख राजा को कहाँ मालूम था कि जिन्हें मैं याचना करने के लिए कह रहा हूँ , वे ही हमारे अर्थात् धर्म के दातार हैं और हिंसा के घोर पाप से मेरा उद्धार करने वाले हैं।
उन ब्राह्मण वेष धारी विष्णुकुमार मुनि ने राजा से वचन लेकर तीन पग जमीन माँगी । राजा ने खुशी से वह जमीन नाप कर लेने को कहा । . बस हो गया विष्णुकुमार का काम ।
विष्णुकुमार ने विराट रूप धारण किया । विष्णुकुमार का यह विराट रूप देख कर राजा तो चकित हो गया । उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है।
विराट स्वरूप विष्णुकुमार ने एक पग सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रख कर बलिराजा से कहा – “बोल, अब तीसरा पग कहाँ रखू ? तीसरा पग रखने की जगह दे, नहीं तो तेरे सिर पर पग रख कर तुझे पाताल में उतार दूंगा ।" - मुनिराज की ऐसी विक्रिया होने से चारों ओर खलबली मच गई, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानों काँप उठा । देवों और मनुष्यों ने आकर श्री विष्णुकुमार की स्तुति की और विक्रिया समेटने के लिए प्रार्थना की । बलि राजा आदि चारों विष्णुकुमारजी मुनिराज के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगे “प्रभो ! क्षमा करो ! हमने आपको पहचाना नहीं ।"
. श्री विष्णुकुमार ने क्षमाभाव पूर्वक उन्हें अहिंसा धर्म का स्वरूप समझाया तथा जैन मुनियों की वीतरागी क्षमा बता कर उसकी महिमा समझायी और आत्मा के हित का परम उपदेश दिया । उसे सुनकर उनका हृदय परिवर्तन हुआ और अपने पाप की क्षमा माँग कर उन्होंने आत्मा के हित का मार्ग अंगीकार किया ।