Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 54
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/५२ और ध्यान से अपने आत्मा को शुद्ध रत्नत्रय धर्म के साथ अभेद करके ऐसा वात्सल्य प्रगट किया कि उन्होंने अल्पकाल में ही केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष पाया । [ श्री विष्णुकुमार मुनिराज की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि धर्मात्मा साधर्मी जनों को अपना समझ कर उनके प्रति अत्यन्त प्रीति पूर्वक वात्सल्य रखना चाहिये, उनके प्रति आदर-सम्मान पूर्वक हर प्रकार की मदद करनी चाहिये और उनके ऊपर कोई संकट आये तो अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसका निवारण करना चाहिये । इस प्रकार धर्मात्मा के प्रति अत्यन्त प्रीति सहित आचरण करना चाहिये । जिसे धर्म की प्रीति होती है, उसे धर्मात्मा के प्रति प्रीति होती है। सच्चे आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि अन्य धर्मात्मा के ऊपर आये संकट को देख नहीं सकते । संसारी जीवों को जैसी प्रीति अपने स्त्री- पुत्र -धनादि में होती है, वैसी प्रीति धर्म, धर्मात्मा एवं धर्मायतनों में होना ही 'धर्म वात्सल्य' है । ऐसा यथार्थ धर्म वात्सल्य सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है। मुनिराज विष्णुकुमार की भी इसी कारण प्रशंसा की गई है । श्रावण की पूर्णिमा के दिन बलि आदि का बन्धन और धर्म की रक्षा हुई, इसलिए उसी दिन से यह पर्व 'रक्षाबन्धन' के नाम से चल पड़ा। वास्तव में कर्मों से न बँध कर स्वरूप की रक्षा करना ही सच्चा 'रक्षा बन्धन' है ।] चित्त कोई जमीन नहीं, जिसे बल से, वैभव से, पुण्यप्रताप से जीत लिया जाये। चित्त को जीत लेने वालों को छह खण्डों की नहीं अखण्ड आत्मा की प्राप्ति होती है। अखण्ड आत्मा की उपलब्धि ही जीवन की सार्थकता है। - आप कुछ भी कहो, पृष्ठ ३२

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