Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/ - ८/७५ कर्मों की कैसी विचित्रता होती है ? पिता कितना धर्मात्मा और सरल स्वभावी तथा उसका पुत्र उतना ही पापी और दुराचारी ।
इसी समय, एक अन्य नगर से ब्राह्मण पुत्र नारद, जो कि निरभिमानी और सच्चा जिनभक्त था, क्षीरकदम्ब गुरु के पास पढ़ने के लिए आया ।
राजकुमार वसु, पर्वत और नारद तीनों क्षीरकदम्ब गुरु के पास एक साथ पढ़ने लगे । वसु और नारद की बुद्धि अच्छी थी, इसलिए वे थोड़े ही समय में अच्छे विद्वान हो गये । रहा पर्वत, सो एक तो उसकी बुद्धि पापानुगामी थी, उस पर भी पाप के उदय से उसे कुछ आता-जाता नहीं था ।
अपने पुत्र की यह हालत देख कर उसकी माता ने एक दिन गुस्सा होकर अपने पति से कहा- “जान पड़ता है, आप बाहर के लड़कों को अच्छी तरह पढ़ाते हो और अपने स्वयं के पुत्र पर आपका ध्यान नहीं है, उसे आप अच्छी तरह नहीं पढ़ाते । इसीलिए उसे इतने दिनों तक पढ़ने पर भी कुछ नहीं आया ।"
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क्षीरकदम्ब ने कहा- “ इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । मैं तो सभी को एक जैसा ही पढ़ाता हूँ । तुम्हारा पुत्र ही मूर्ख है, पापी है, वह कुछ समझता ही नहीं । अब मैं इसके लिए क्या करूँ ?”
एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उसे गुरु ने बहुत मारा । उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़ कर वसु को बचा लिया। वसु ने अपने को बचाने वाली गुरु माता से कहा - "हे माता, तुमने मुझे बचाया, इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ। कहो, आपको क्या चाहिये ? वही लाकर मैं आपको प्रदान करूँ ।"
स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा- “पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब जरूरत होगी तब माँग लूँगी ।"