Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 97
________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/९५ भार से दुःख ही देने वाला है । लोभ तो पाप को बढ़ाने वाला होने से निंद्य है और दानादि शुभ कार्य श्रावक के लिए प्रशंसनीय हैं । हे भव्य ! तू सम्यक्त्व के पश्चात् व्रतों को भी धारण कर । सर्व संग त्यागी मुनिपना न हो सके, तब तक देश-त्याग रूप व्रत तो अवश्य धारण कर । राजा जयकुमार की कहानी: राजा श्रेयांस के भाई राजा सोम के पुत्र राजा जयकुमार इस परिग्रहपरिमाण व्रत का पालन करने में प्रसिद्ध हैं । राजा जयकुमार की सुलोचना नाम की सद्गुणी पत्नि थी । स्त्री सम्बन्धी परिग्रह परिमाण में उसे एक मात्र रानी सुलोचना के अलावा अन्य सभी स्त्रियों का त्याग था । एक बार इन्द्र सभा में सौधर्म इन्द्र ने उनके सन्तोष व्रत की प्रशंसा की, वह सुन कर एक देव उनकी परीक्षा करने आया । जिससमय वे कैलास पर्वत की यात्रा के लिए गये, उससमय उसने विद्याधरी का उत्तम रूप धारण करके जयकुमार को बहुत ललचाया और हाव-भाव प्रदर्शित करके अपने साथ क्रीड़ा करने के लिए जयकुमार को कहा । . परन्तु जयकुमार जिसका नाम ! वह विषयों से पराजित कैसे हो? वे थोड़े भी नहीं ललचाये, परन्तु विरक्त भाव से उलटे उन्होंने उस विद्याधरी को उपदेश किया- “हे माता ! यह तुम्हें शोभा नहीं देता। मेरा एक-पत्निव्रत है, इसलिए सुलोचना के सिवा अन्य स्त्रियों का मुझे त्याग है । हे देवी ! तू भी विषय-वासना के इस दुष्ट परिणाम को छोड़ और शीलवती होकर पर-पुरुष के साथ रमण करने की अभिलाषा छोड़।” ऐसा कह कर जयकुमार तो हृदय में तीर्थंकर भगवन्तों का स्मरण करके ध्यान में खड़े रहे । देवी ने नाना प्रकार के अनेक उपाय किये, फिर भी जयकुमार डिगे नहीं ।

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