Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 98
________________ N जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/९६ व्रत में उनकी दृढ़ता देख कर अन्त में देव प्रसन्न हुआ और प्रगट होकर उनकी स्तुति करने लगा तथा उनका सम्मान किया । कुछ समय बाद जयकुमार संसार से विरक्त हुए और राजपाट छोड़ कर मुनि दीक्षा अंगीकार की, आत्मध्यान से केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष गये । इस प्रकार परिग्रह-परिमाण व्रत में प्रसिद्ध जयकुमार की कहानी बताई । अब व्रत रहित और तीव्र लोभ में लीन जीव कैसा दुःख पाता है ? यह बताने के लिए लुब्धदत्त सेठ का उदाहरण कहता हूँ । लोभी लुब्धदत्त की कहानी : लघुदत्त अथवा लुब्धदत्त नाम का एक अति लोभी मनुष्य धन कमाने के लिए परदेश में गया, वहाँ चोरों ने उसे लूट लिया । रास्ते में उसने एक ग्वाले के घर से छाछ माँग कर पी ली, उस छाछ में थोड़ा मक्खन देख कर उसने लोभवश विचार किया - हर रोज इस प्रकार छाछ माँग कर पिऊँगा और उसमें से जो मक्खन निकलेगा, उसे इकट्ठा करूँगा, बाद में उसका घी बनाकर उसका व्यापार करूँगा । ऐसा विचार करके छाछ माँग कर मक्खन इकट्ठा करने लगा। अब थोड़े दिन में उस लोभी के पास एक सेर घी इकट्ठा हो गया और वह इस विचार में चढ़ गया - "यह घी बेचकर अब मैं चीजें लेनेबेचने का धन्धा करूँगा, उससे लाखों रुपया कमाऊँगा, फिर राजा बनूँगा, फिर चक्रवर्ती होऊंगा, मेरी पटरानी प्रेम से मेरे पैर दबाने आयेगी, उस समय प्रेम से मैं उसे लात मारूँगा...' "" ऐसी धुन में उसने लात मारने की चेष्टा की । वह घी के मटके को लग गयी, मटके से घी अग्नि में गिरते ही बहुत जोर की ज्वाला उठी और झोपड़ी में आग लग गई । उस तीव्र आग में तीव्र लोभ के आर्तध्यान सहित वह मर गया और दुर्गति में गया । रावण आदि भी परिग्रह की तीव्र लालसा लेकर नरक में गये । परिग्रह की तीव्र लालसा का ऐसा फल जान कर हे मित्र ! तू आरम्भ - परिग्रह की मर्यादा रखना । सम्यक्त्व के सर्व अंगों का तथा पाँच व्रतों का उत्साह पूर्वक पालन करना ।

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